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________________ कथानिरूपण तथा छलं... १८१ (८) अविज्ञातार्थ वादी के द्वारा तीन बार कहे अर्थ को भी यदि अप्रसिद्ध प्रयोग अथवा अनिद्रुत उच्चारण के कारण परिषत् और प्रतिगदी नहीं समझ सकते हैं, तो वह विज्ञातार्थनामक निग्रहस्थान है, क्योंकि बादो वहां अपने अज्ञान को छिपाने के लिये अप्रसिद्धार्थक पदों का प्रयोग करता है या अतिद्रुत रूप में उनका उच्चारण करता है। अविज्ञातार्थ का यही लक्षण सूत्रकार ने भी किया है-'परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहितमप्यविज्ञातार्थम् । __ अविज्ञातार्थ और निरर्थक निग्रह स्थान में धर्मकार्ति द्वारा आशंकित अभेद का निराकरण करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि निरर्थक में वाक्यों का कोई अर्थ ही नहीं होता और अविज्ञातार्थ में अर्थ होते हुए भी अप्रसिद्धार्थकपदप्रयोग तथा अतिद्रुतोच्चारणादि कारणों से उसको प्रतीति नहीं होती । यही दोनों का भेद है । (९) अपार्थक जहां अनेक पदों अथवा वाक्यों का पूर्वापरभाव से सम्बन्ध नहीं है, वहां उनके असम्बद्धार्थक होने से अपार्थक निग्रहस्थान है, क्यों क उन पदों और वाक्यों के समुदाय का कोई अर्थ प्रतीत नहीं होता, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है पौर्वापर्यायोगादप्रतिसम्बद्धार्थमपार्थकम् । जैसे, 'दश दाडिमानि', 'षडपूपाः', 'कुण्डमजाजिनं', 'पललपिण्डः', 'रौरुकं कुमार्याः पाय्यम्', 'तस्याः पिता अप्रतिशीनः' इत्यादि का प्रयोग। इसी अपार्थक को असम्बद्धवाक्य अथवा असम्बद्धाभिधान कहते हैं। अपार्थक में अधिकांशतः पदार्थों का अनुसंधान होने पर भी पौर्वापर्य सम्बन्ध के न होने से उनके समुदाय के अर्थ की प्रतीति नहीं होती और आवज्ञातार्थ में आतेद्रुतोच्चारणााद के कारण अर्थ की प्रतीति नहीं होतो, यह दोनों में भेद हैं। (१०) अप्राप्तकाल प्रतिज्ञादि अवयववाक्यों का अर्थ के कारण क्रम माना जाता है, उनका विपरीत. क्रम से कथन अप्राप्तकालनामक निग्रहस्थान होता है, जैसाक सूत्रकार ने कहा है'अवयवावपयोसवचेनमप्राप्तकालम' । (११) न्यून प्रतिज्ञादि अवयववाक्यों में से एक भी वाक्य को न्यूनता होने पर न्यून नामक निग्रहस्थान होता है, क्यों के उस वाक्य के अभाव में साध्यसिद्धि नहीं हो सकती। 1. वही, ५।२।९ 2. न्यायसूत्र, ५।२।१० 3. वही, ५४२११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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