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________________ २३६ न्यायसार ___ उदयनाचार्य ने भी किरणावली में विभागसम्बन्धी भासर्वज्ञमत का निराकरण करते हुए अन्त में कहा है-'व्यधिकरणमपि कर्मव विनाशकमस्तु । न चातिप्रसंगः, आश्रयाश्रित. परम्परासंयोगस्यैव विनाश्यत्वात । न, विरोधिनः समानाधिकरणस्यैव विनाशकत्वमित्यत्र असति बाधके संकोचानुपपत्तिरिति भासर्वज्ञमतनिरासः। 1 अर्थात् अंगु लक्रिया अंगुत्यधिकरण में होने से अंगुलितरुसंयोग की नाशक हो सकती है, हस्ततम्संयोग की नाशक नहीं। क्योंकि कर्मजन्य हस्ततरुसंयोग के प्रति अगुलितमसंयोग कारण नहीं और अकारण अंगुलितरुसंयोग हस्ततरुसंयोग का नाशक नहीं, क्योंकि समानाधि. करणवर्ती विरोधी ही अपने विरोधी का नाश कर सकता है इस नियम में संकोच का कारण न होने से अंगुल्यधिरण कर्म के द्वारा हस्ताधिकरण संयोग का नाश नहीं हो सकता । अतः विभागज विभाग मानना ही होगा। भासर्वज्ञ ने कर्म का गुण में अन्तर्भाव किया है। उनके अनुसार व पचीमबां गुण है। वैसे कर्म का गुण में अन्तर्भाव भारतीय दार्शनिकों को अतिप्राचीनकाल से ज्ञात था । मण्डनामन प्रणीत भावनाविवेक को टीका में उम्बेक ने यह प्रमाणित किया है कि बादरि नामक मीमांसकवृद्ध ने इस मान्यता का समर्थन किया था। परन्तु न्यायलोलावतीकण्ठाभरण के रचयिता शंकर मिश्र, न्यायासद्धान्तमुक्तावलीप्रकाश के रचयिता भट्ट दिनकर और तार्किकरक्षाानष्कण्टका के प्रणेता मल्लिनाथ ने कर्म के गुणान्तर्भाव को भूषणमत के रूप में बतलाया है, क्योंकि उनको भूषणकार के प्रन्थ से ही इसका ज्ञान प्राप्त हुआ था । भट्ट वादीन्द्र ने भी रससार में भूषणकार के इस मत का उल्लेख किया है-'कर्म गुणः सामान्यवत्त्वे स्पर्शानाधारत्वे च सति द्रव्याश्रेितत्वात् । सामान्यवत्त्वे सात कार्यानाधारत्वादित्यनुमानाच्च कर्म गुण इति न्यायभूषणकारः । जैसाकि पहिले कहा जा चुका है कि वैशेषिक दार्शनिक आर्षज्ञान को योगिप्रत्यक्ष से भिन्न मानते हैं और भासर्वज्ञ ने आर्षज्ञान का योगिप्रत्यक्ष में अन्तर्भाव किया है । परवत वैशेषिक आचार्यों ने इस मान्यता का निराकरण किया है। मानमनाहरकार वादिवागीश्वराचार्य ने कहा है-'धर्मविशेषजत्वाद् योगप्रत्यक्षान्तर्मुतामात चेत्, न, धर्मविशेषजत्वासिद्धेः। धर्मविशेषमात्रजन्यत्वस्य व्यभिचारात् । अविनाभावानरपेक्षः 1. किरणावली, पृ. १५१-१५२ 2. द्रव्यगुणयोः वीयरुणिम्नोर्यागक्रयरूपयोर्धातुवाम्यसंयोगविभागरूपक्रिययोः । -भावनाविवेकटीका, पू ४२. 3. Nyayabhusana-A Lost Work on Medieval Indian Logic, - A. L. Thakur, JBRS, Vol. XLV, P. 94, Footnote No. 27 4. Ibid, Footnote No. 28 5. कमापि गुण इति भूषणः...। -तार्किकरक्षा, पृ. १४१. 6. रससार, १.४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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