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________________ ११९ अनुगान प्रमाण नहीं होती तथा आरम्भवाद का ग्रहण होने से परिणामवाद व विवर्तवाद की व्यावृत्ति भी हो जाती है । सर्वज्ञ ने अविद्यमानसपक्ष विद्यमानविपक्ष पक्षव्यापक का कालात्ययापदिष्ट में और अविद्यमानसपक्ष विद्यमानविपक्ष पक्षैकदेशवृत्ति का भागासिद्ध में अन्तर्भाव मान कर उन दोनों को अनध्यवसित हेत्वाभास का पृथक् भेद नहीं माना है । किन्तु विरुद्ध हेत्वाभास के पौकदेशवृत्ति चार भेदों के असिद्ध कोटि में आने पर भी विरुद्धलक्षणाक्रान्त होने से पूर्वोक्त तुलादृष्टान्त से उभयव्यवहारयोग्य बतलाकर उन्हें जैसे विरुद्ध का भेद भी मान लिया है, उसी प्रकार अनध्यवसित के लक्षण की उपपत्ति से उपर्युक्त दो भेद अनध्यवसित के भी क्यों नहीं मान लिये जाते, पूर्वपक्ष के इस अभिप्राय को ध्यान में रखते हुए भासर्वज्ञ का कहना है कि उपर्युक्त दो भेदों को अनध्यवसित मानने में उन्हें इष्टापत्ति ही है । यदि ये दोनों भेद अनध्यवसित हैं, तो उसके भेदों में उनका परिगणन क्यों नहीं किया, इस आशंका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि अनध्यवसित के समस्त उदाहरणों परिगणन की प्रतिज्ञा नहीं की है । ' कालात्ययापदिष्ट महर्षि गौतम ने 'कालात्ययापदिष्टः कालातीतः अर्थात् कालात्यय से अपदिष्ट हेतु कालात्यय के कारण कालातीत कहलाता है, यह कालात्ययापदिष्ट का लक्षण किया है । भाष्यकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि अपदिश्यमान जिस हेतु वा अर्थैकदेश कालात्यय से युक्त हो, वह कालात्ययापदिष्ट अर्थात् कालातीत कहलाता है ।" जैसे - 'नित्यः शब्दः संयोगव्यङ्ग्यत्वात् रूपवत्' इस अनुमान में 'संयोगव्यङ्ग्यत्व' हेतु कालातीत है, क्योंकि इस हेतु का एकदेश संयोग कालात्यय से युक्त है । तात्पर्य यह है कि यहां मीमांसक घटप्रदीपसंयोग से व्यङ्ग्य रूप के दृष्टान्त से मेरीदण्डसंयोगव्यङ्ग्य शब्द में नित्यता सिद्ध करना चाहते हैं । अर्थात् अभिव्यक्ति से पूर्व तथा उत्तरकाल में विद्यमान रूप की जिस प्रकार घटप्रदीपसंयोग से अभिव्यक्ति होती है, उसी प्रकार अभिव्यक्ति से पूर्व तथा उत्तरकाल में विद्यमान शब्द की भी मेरीदण्डसंयोग से अभिव्यक्तिमात्र होती है, वह मेरीदण्डसंयोग से उत्पन्न नहीं होता । अभिव्यक्ति से पूर्व तथा उत्तरकाल में भी वह रहता है, अतः नित्य है । किन्तु नैयायिकों का कथन है कि संयोगव्यङ्ग्यत्व हेतु रूपदृष्टान्त से शब्दनित्यत्व को सिद्ध करने में असमर्थ है, क्योंकि घटप्रदीपसंयोगकाल में ही रूप का ग्रहण होता है, पूर्वकाल व उत्तरकाल में नहीं । अतः उसे संयोगव्यङ्ग्य माना जा सकता है, किन्तु शब्दोपलब्धि मेरीदण्डसंयोग को निवृत्ति हो जाने पर भी 1. अनध्यवसितमेदावर्ती भवेताम् कुत्स्नोदाहरणस्य चाऽप्रतिज्ञातत्वात् । - न्यायभूषण, पृ. ३१६. 2. न्यायसूत्र, १/२/९. 3. न्यायभाष्य, ११२१९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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