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________________ ११८ न्यायसार ३. विद्यमानसपक्षविपक्ष पक्षव्यापक : यथा-'अनित्यः शब्दः आकाशविशेषगुणत्वात् । शब्द का अनित्यत्व यहां साध्य है । अनित्य घटादिरूप सपक्ष तथा नित्य आत्मादि विपक्ष यहां विद्यमान हैं। अतः आकाशविशेषगुणत्व हेतु विद्यमान सपक्ष विपक्ष वाला है तथा सभी शब्द आकाश-विशेष गुण हैं । अतः उसका पक्षव्यापकत्व भी स्फुट है। ४. विद्यमानसपक्षविपक्ष, पक्षकदेशवृत्ति : ___ यथा--'सर्व द्रव्यमनित्यं क्रियाव त्वात' । पक्षीकृत समग्त द्रव्यों के एकदेश आकाशादि में क्रियावत्व का अभाव होने के कारण यह हेतु पक्षकदेशवृत्ति है। द्रव्यों से अन्यत्र इसका अभाव है, अतः यह असाधारण है। यहां अनित्यत्व है, अतः निश्चित अनित्यत्व वाले गुणकर्म सपक्ष हैं । तद्विपरीत नित्यत्व धर्म वाले सामान्य, विशेष, समवाय विपक्ष हैं । ५. अविद्यमानविपक्ष विद्यमानसपक्ष पक्षव्यापक : यथा--'सर्वकार्य नित्यमुत्पत्तिधर्मकत्वात् । यहां नित्यत्व साध्य है, तदभाववान अनित्य घटादि विपक्ष हैं, किन्तु वे सभी कार्य होने से पक्षकोटिनिक्षिप्त हैं और विपक्ष पक्ष से भिन्न होता है, अतः यहां विपक्ष का अभाव है। नित्यत्वरूप साध्यवान् आकाशादि सपक्ष हैं, वे पक्षान्तर्गत नहीं है, क्योंकि वे कार्य नहीं हैं । अतः हेतु विद्यमान सपक्ष वाला है। सभी कार्यो के उत्पत्ति धर्म वाला होने से यह हेतु पक्षव्यापक है । ६. अविद्यमानविपक्ष विद्यमानसपक्ष पक्षकदेशवृत्ति : यथा-'सर्व कार्य नित्यं सावयवत्वात्' । इस अनुमान में सावयवत्व हेतु में अविद्यमानविपक्षता तथा विद्यमानसपक्षता पूर्ववत है लथा कार्य शब्द तथा बुद्वयादि में सावयवत्व के अभाव से यह हेतु पक्षौकदेशवृत्ति है। ___ यहां 'सावयवत्व' का अर्थ 'अवयवेन सह वर्तते, तस्य भावः' इस व्युत्पत्ति से प्रतीयमान है । अवयवसाहित्य का अर्थ कुछ लोगों ने अवयवारब्धत्व किया है, जिसका तात्पर्य परिणामवाद और विवर्तवाद की व्यावृत्ति काते हुए आरम्भवाद का ग्रहण करना है । साथ ही वौद्ध-अवयवसंघात की व्यावृत्ति करना भी है। किन्तु यहां अवयव शब्द नैयायिकों की अपनी परिभाषा के अनुसार एकदेशमात्रपरक न होकर समवायिकारण का बोधक है । अतः सावयवत्व का अर्थ है-अवयवसमवेतत्व । परमाणुसमूह के प्रत्येक परमाणु को वैसे ही समूह का अवयव कहा जाता है, जैसे कि तण्डुलराशि के प्रत्येक तण्डुल को अवयव । किन्तु वह अवयव समवायि. कारणात्मक नहीं, अपितु, वन में वृक्ष के समान एकदेशमात्ररूप है । इस प्रकार अवयवसमवेतत्व अर्थ मानने पर सौत्रान्तिक-संघातबाद में सामयवत्व की अतिप्रसक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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