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________________ १५२ न्यायसार वीतरागकथा में वैतण्डिक स्वपक्ष का साधन नहीं करता, अपितु प्रतिवादी के पक्ष का निराकरण मात्र करता है। अतः स्वपक्षस्थापनाहीन कथा को वितण्डा कहना चाहिए न कि प्रतिपक्षस्थापनाहीन को, क्योंकि वैतण्डिक प्रतिपक्ष का तो निराकरण ही करता है, स्थापन नहीं । इस प्रश्न का समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि सूत्र में प्रतिपक्ष पद वैण्डिक के स्वपक्ष का ही बोधक है, किन्तु वैतण्डिक के स्वपक्ष को ही प्रतिवादी के पक्ष की अपेक्षा से प्रतिपक्ष होने के कारण प्रतिपक्ष कहा गया हैं। उद्योतकराचार्य ने प्रतिपक्ष का अर्थ द्वितीय पक्ष' किया है । उसका भी तात्पर्य वैतण्डिक के स्वपक्ष में ही है । इसी लिये वाचस्पति मिश्र ने उद्योतकर के अभिप्राय का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है-'पूर्ववादिपक्षापेक्षया वैतण्डिकस्य आत्मीय एव पक्षः प्रतिपक्षः' । वोतराग वितण्डा कथा वहां होती है जहां गुरु शिष्य के दुराग्रह के निवारणार्थ युक्ति द्वारा उसके पक्ष का निराकरण करता है। वहां गुरु में विजय की इच्छा नहीं है, किन्तु तत्त्वनिर्णयार्थ ही शिष्य के पक्ष का निराकरण करता है, अतः उसे वीतरागकथा माना जाता है तथा गुरु स्वपक्ष का साधन नहीं करता, अतः उसे वितण्डा कहा जातो है । जहां वादी विजय की भावना से स्वपक्ष की सिद्धि न करते हुए प्रतिवादी के पक्ष का निराकरण करता है, वह विजिगीषुवितण्डा कथा है। . जब वैतण्डिक किसी पक्ष का साधन नहीं करता, तो उसके अपने पक्ष, जो कि प्रतिवादी के पक्ष की अपेक्षा से प्रतिपक्ष कहलाता है, का अभाव ही है, क्योंकि साधन के द्वारा व्यक्तीक्रियमाण ही पक्ष होता है। साधन के अभाव में उसकी अभिव्यक्ति न होने से वह पक्ष अर्थात् प्रतिपक्ष नहीं कहला सकता। अतः 'प्रतिपक्षहोनो वितण्डा' यही वितण्डा का लक्षण मानना चाहिये, 'स्थापना' पद का प्रयोग उसमें निरर्थक हैं - यह कथन उचित नहीं, क्योंकि वादी जिसे स्वीकार करता है, वह पक्ष कहलाता है तथा उससे विरुद्ध या प्रतिवादिस्वीकृत प्रतिपक्ष कहलाता है, यही पक्ष, प्रतिपक्ष की परिभाषा है। नियमान को ही पक्ष मानने पर निर्णीयमान वस्तु के एक होने से उसमें किसी प्रकार का विवाद न होने के कारण वादीप्रतिवादी का विवाद ही अनुपपन्न हो जाता है । अतः वादी द्वारा किसी वस्तु का अभ्युपगम ही पक्ष कहलाता है, यह पक्ष - परिभाषा मानने पर वितण्डाकथा में भी वैतण्डिक का स्वपक्ष सिद्ध हो जाता है, जिसे कि प्रतिवादी की अपेक्षा से प्रतिपक्ष कहा गया है । उसका अभाव वितण्डा में अनुपपन्न है । केवल उसकी स्थापना नहीं की जाती, अतः सूत्रोक्त लक्षण हो संगत है । 1. स्वपक्ष एव वैतण्डिकस्य प्रतिवाद्दिपक्षापेक्षयात्र प्रतिपक्ष उक्तः । -न्यायभूषण, पृ. ३२४ 2. न्यायवार्तिक, १/२/३ 3. तात्पर्यटीका, १/२/३ 4. न्यायभूषण, पृ. ३३४ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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