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कथानिरूपण तथा छल...
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(३) प्रतिज्ञाविरोध प्रतिज्ञा तथा हेतु का विरोध प्रतिज्ञाविरोध कहलाता है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है-'प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधः प्रतिज्ञाविरोधः। जैसे, वादी द्रव्य को गुण से भिन्न सिद्ध करने के लिये 'गुणव्यतिरिक्तं द्रव्य भेदेनाऽनुपलम्भात्'-इस अनुमान का प्रयोग करता है, तो 'गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यम्' इस प्रतिज्ञा-वाक्य का 'भेदेनानुपलम्भात्' हेतु से विरोध है, अतः यह प्रतिज्ञा विरोध निग्रहस्थान है । धर्मकीर्ति ने यहां प्रश्न उपस्थित किया है कि यदि वस्तुतः प्रतिज्ञा और हेतु में विरोध हो तो प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान हो सकता है, किन्तु दो भिन्न वस्तुओं का भी यदि किसी कारण से भिन्न रूप से उपलम्भ न हो, तो यह निग्रहस्थान नहीं माना जा सकता। जैसे, किसी पवत के पास विद्यमान पिशाचादि का पर्वत से भेद होने पर भी उससे भिन्न उपलम्भ नहीं होता । इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि यदि वादी को द्रव्य और गुणों के भेद को परिज्ञान नहीं है, तो वह दूसरे को समझाने के लिये उसकी प्रतिज्ञा क्यों करता है ? क्योंकि अव्युत्पन्न पुरुष दूसरे को समझाने वाला नहीं हो सकता और यदि उसको उनके भेद का उपालम्भ है, तो उसका 'भेदेनानुपलम्भात्' यह हेतुवाक्य व्याघातदोषग्रस्त है। अतः प्रतिज्ञा और हेतु का विरोध होने से प्रतिज्ञाविरोध की अनुपपत्ति नहीं है।
(४) प्रतिज्ञासंन्यास अपने पक्ष का निषेध हो जाने पर प्रतिज्ञात अर्थ का निह्नय करना प्रतिज्ञासंन्यास निग्रहस्थान है। सूत्रकार ने भी कहा है-'पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थापनयनं प्रतिज्ञामन्यासः "। सूत्र में अपनयन पद अपहनवार्थक है । प्रतिज्ञाहानि में वादी असामर्थ्य के कारण प्रतिज्ञात अर्थ का परित्याग करता है और प्रतिज्ञासंन्यास में 'मैंने ऐसी प्रतिज्ञा नहीं की' इस प्रकार प्रतिज्ञातार्थ का अपहनव करता है। अतः दोनों में भेद है । जैसे-'अनुष्णः अग्निः' ऐसो प्रतिज्ञा करने पर अग्नि में अनुष्णता का स्पार्शन प्रत्यक्ष द्वारा बाध होने से प्रतिज्ञात अनुष्णता का प्रतिषेध होने पर यदि वादी यह कहता है-'हे मध्यस्थ व साक्षियों, देखो. मैंने अग्नि अनुष्ण है, ऐसा नहीं कहा । यह प्रतिवादी मेरे द्वारा अनुक्त वस्तु को लेकर दोष दे रहा है', ऐसा वादी का कथन प्रतिज्ञासंन्यास निग्रहस्थान है।
(५) हेत्वन्तर वादी द्वारा सामान्यतः कथित हेतु का प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध कर देने पर विशेषणविशिष्ट हेतु का जहां वादी द्वारा प्रयोग किया जाता है, वहां हेत्वन्तर
1. न्यायसूत्र, ५।२। 2. वादन्याय, पृ. ७९
3. न्यायभूषण, पृ. ३६० 4. नगयसूत्र, ५/२१५
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