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________________ १०० न्यायसार हेतु पक्ष -भिन्न पटरूप अधिकरण में रहता है न कि शब्द में । अतः यह व्यधिकरणा सिद्ध है । यद्यपि शब्द में भी कृतकत्व है, तथापि 'पटस्य कृतकत्वात्' हेतु द्वारा कृतकता पट में प्रतिपादित है, न कि शब्द में और पट के कृतक होने से शब्द में अनित्यता सिद्ध नहीं हो सकती । यद्यपि 'चैत्रोऽयं ब्राह्मणः तत्पित्रोर्ब्राह्मणत्वात् ' इस अनुमान में 'तस्पित्रोर्ब्राह्मणत्वात्' यह हेतु चैत्रभिन्न माता-पिता में ब्राह्मण का प्रतिपादन कर रहा है न कि पुत्र चैत्र में तथापि यह हेतु पुत्रगत ब्रह्मणत्व का साधक है, उसी प्रकार 'पटस्य कृतकत्वात्' हेतु भी शब्दगत अनित्यता का साधक बन जायेगा, इस आशंका का समाधान यह है कि व्यधिकरण हेतु को अन्यत्र साध्य का साधक मानने पर 'नटो ब्राह्मणः, चैत्रस्य ब्राह्मणत्वात्' यह हेतु भी नट में ब्राह्मणत्व का साधक होने लगेगा । अतः व्यधिकरण हेतु को साध्यसाधक नहीं माना जा सकता । 'अयं चैत्रः ब्राह्मणः तत्पित्रोर्ब्राह्मणत्वात्' इस अनुमान में तत्पित्रोर्ब्राह्मणत्वात् से 'ब्राह्मणजन्यत्व' हेतु विवक्षित है और वह हेतु पक्ष में रहता है, वे भिन्न अधिकरण में नहीं । अतः उसमें ब्राह्मणत्व का साधक है तया नट में ब्रह्मणजन्यत्व न होने के कारण वह उसमें ब्राह्मणत्व की सिद्धि नहीं कर सकता । अतः साधारण व्यक्ति के 'पित्रोर्ब्राह्मणत्वात् ' ऐसा प्रयोग कर देने पर भी विद्वान् प्रतिभा या ऊह शक्ति के द्वारा यही समझता है कि यह हेतु पक्षसम्बन्धी है, पक्षासम्बद्ध नहीं । हेतु का पक्ष से सम्बन्ध साक्षात् हो या परम्परया, वह साध्य का साधक होता है । प्रकृत में माता-पिता का साक्षात् ब्राह्मण्य से सम्बन्ध है, और साता-पिता द्वारा परम्परया पुत्र से भी उसका सम्बन्ध है, अतः वह हेतु पक्षरूप पुत्र से सम्बद्ध ही है, असम्बद्ध नहीं । अतः असिद्ध हेत्वाभास नहीं । ३. विशेष्यासिद्ध जिस हेतु का विशेष्यभाग असिद्ध हो, उसे विशेष्यासिद्ध कहते हैं । अनित्यः शब्दः सामान्यत्वे सति चाक्षुषत्वात्' इस अनुमान में हेतु विशिष्टरूप है । उसके दो अंश हैं- विशेषणांश और विशेष्यांश । प्रकृत उदाहण में हेतु का विशेष्यांश 'चाक्षु पत्त्र' असिद्ध है । अतः हेतु का विशेष्यरूप असिद्ध होने से यह विशेष्यासिद्धिप्रयुक्त असिद्ध हेत्वाभास है । ४. विशेषणासिद्ध जिस विशिष्ट हेतु का विशेषण अंश असिद्ध हो, उसे विशेषणासिद्ध कहते हैं । जैसे - ' शब्दोऽनित्यः चाक्षुषत्वे सति सामान्यवत्वात्' । यहाँ हेतु विशिष्टात्मक है । इस विशिष्ट हेतु का विशेषणांश 'चाक्षुषत्व' शब्द में असिद्ध है, अतः यह विशेषणासिद्ध वाभास कहलाता है । श्री वी. पी. वैद्य का कथन है कि चारों उदाहरण स्वरूपासिद्ध के ही विभिन्न प्रतिरूप हैं | 1 1. These first four instances are mere different shades of one and the same fallacy called स्वरूपासिद्ध Nyāyasāra, Notes, P. 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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