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________________ अनुगान प्रमाण ९९ के उपर्युक्त तीनों रूपों में किसी एक रूप की असिद्धि अभिप्रेत है और प्रकृत में चाक्षुत्व हेतु की शब्दरूप पक्ष में सत्ता नहीं है । चाक्षुषत्त्र हेतु की पक्षभूत शब्द में वृत्तिता न होने के कारण उसे स्वरूपासिदूध कहा गया है। नवीनों ने भी केवल पक्षावृत्ति को स्वरूपासिद्ध कहा है, जैसा कि गादावरी में कहा है- 'स्यादेतद् व्याप्तिपक्षघमंताभ्यां निश्चयः सिद्धिस्तदभावोऽसिद्धि: 1 अर्थात् व्याप्ति तथा पक्षधर्मता रूप से निश्चित हेतु सिद्ध कहलाता है तथा उसका अभाव असिद्ध हेत्वाभास है । इनमें व्याप्ति का अभाव जिस हेतु में हो, उसे व्याप्यत्वासिद्ध कहते हैं तथा जिस हेतु में धर्मता का अभाव हो उसे स्वरूपासिद्ध कहते हैं । तर्कभाषाकार ने भी स्वरूपासिद्ध यी स्वरूप माना है ।" आचार्य प्रशस्तपाद ने स्वरूपासिद्ध को उभयासिद्ध शब्द से व्यवहृत किया है । जैसे- 'उभयासिद्धः - अनित्यः शब्दः सावयवत्त्वात् इति' । दिङ्गनाग को भी स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास उभयासिद्ध के रूप में मान्य है, जैसा कि न्यायप्रवेश में उन्होंने कहा है- ' तत्र शब्दानित्यत्वे साध्ये चाक्षुषत्वादित्युभयासिद्धः । जयन्त भट्ट ने भी इसे उभयासिद्ध की कोटि में समाविष्ट किया है । किरणावलीकार उदयनाचार्य ने भासर्वज्ञ के असिद्धलक्षण' से प्रभावित 'अनिश्चितपक्षधर्मताकोऽसिद्धः " यह असिद्ध का लक्षण बतलाया है । 14 चाक्षुषत्व हेतु की शब्दरूप अधिकरण से भिन्न रूपादि में सत्ता होने से इसे व्यधिकरणासिद्ध मानना चाहिए न कि स्वरूपासिद्ध । इस शंका का समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि चाक्षुषत्व हेतु यहाँ रूपादिकरण में प्रतिपादित नहीं है, अपि तु शब्दरूप धर्मी में प्रतिपादित है और उसमें यह हेतु स्वरूपतः अविद्यमान है, अतः स्वरूपासिद्ध कहना ही उचित है । अथवा यह जन्मान्ध के प्रति स्वरूपासिद्ध है ।" उसके लिये रूपादि अदृष्ट होने से व्यधिकरणासिद्धत्व की आशंका नहीं होगी । २. व्यधिकरणासिद्ध 'व्यधिकरणश्चासौ असिद्धश्च' इस व्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि भिन्न अधिकरण में रहने वाले तथा पक्ष में रहने वाले तथा पक्ष में न रहने वाले असिद्ध हेतु को व्यविकरणासिद्ध कहते हैं । जैसे- 'अनित्यः शब्दः पटस्य कृतकत्वात् । यहाँ कृतकत्व 1. गादावरी ( चि.), पृ, १८४५ 2. स्वरून सिद्धस्तु स उच्यते यो हेतुराश्रये नावगम्यते । 3. प्रशस्तपादभाष्य, पृ १९० 4. न्यायप्रवेश, भाग १, पृ. ३ 5. न चाक्षुषत्वादेभय सिद्धस्य, न हि तस्य साध्यत्व संभवतीत्यर्थः । 6 तत्रानिश्चित रक्षवृत्तिरसिद्धः । 7. किरणावली, पृ. २२९ 8. न्यायभूषण, पृ. ३११ Jain Education International न्यायसार, पृ. ७ तर्कभाषा, पृ. ३८२ For Private & Personal Use Only न्यायमंजरी, उत्तरभाग, पृ. १६२ www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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