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अनुमान प्रमाण
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५. भागासिद्ध
यथा 'शब्दोऽनित्यः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्' शब्द दो प्रकार का होता है(१) प्रयत्नसाध्य और (२) अप्रयत्नसाध्य । अकारादि वर्णात्मक शब्द प्रयत्नसाध्य होता है और वायुवादि शब्द अप्रयत्नसाध्य । शब्द के अनित्यत्व को सिद्धि के लिये प्रयुक्त 'प्रयत्नसाध्यत्व' हेतु वायुवादि-शब्दों में नहीं है । अतः पक्ष शब्द के एकदेश वावादिशब्द में न रहने के कारण प्रयत्नानन्तरीयकत्व भागासिद्ध है।
यद्यपि वायूवादि शब्द भी ईश्वरप्रयत्नसाध्य हैं, अतः भागासिद्धि की उपपत्ति नहीं होती, तथापि प्रयत्न के तीव्रत्व, मन्दत्व के अनुसार शब्द की तीव्रता और मन्दतादि होते हैं । अतः यहाँ 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' से तीव्रत्वमन्दत्वादियुक्त प्रयत्नसाध्यत्व विवक्षित है । ईश्वरप्रयत्न नित्य है, उसमें तीव्रत्वादि धर्म के न होने से वायवादिशब्द में तीव्रत्वादिधर्मयुक्त प्रयत्नसाध्य हेतु भागासिद्ध ही है । इसी अभिप्राय से प्रयत्न साध्यत्व' से 'जोवप्रयत्नसाध्यत्व' अभिप्रेत है, ऐसा अपरार्क ने कहा है । अथवा ईश्वर का स्वीकार न करने वालों के प्रति यह भागासिद्ध है, क्योंकि उनके मत में वायवादि शब्द में ईश्वरीयप्रयत्नसाध्यता भी नहीं है।
जयसिंह सूरि ने 'न्यायतात्पर्यदीपिका' में वैशेषिकसम्मत शब्दोत्पत्तिक्रिया का निरूपण करते हुए वर्णात्मक तथा अवर्णात्मक दोनों प्रकार के शब्दों की प्रयत्न से उत्पत्ति बतलाई है । प्रयत्नानन्तरीयकत्व का स्पष्टीकरण करते हुए जयसिंह सुरि ने यह प्रतिमादेत किया है कि यह आद्य शब्द में ही होता है; द्वितीय, तृतीय शब्द में नहीं, क्योंकि द्वितीय, तृतीय शब्द शब्दजन्य होते हैं । शब्दधाग का प्रथम शब्द ही प्रयत्नजन्य होता है, द्वितीयादि नहीं । इस प्रकार प्रयत्नानन्तरीयकत्व' की समस्त पक्ष में सत्ता न होकर पक्षकदेश में ही है ।
उपयुक्त विवरण से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि शब्द के प्रयत्नानतरीयकत्व के सम्बन्ध में दो मान्यताएं हैं । एक तो वे लोग जो यह मानते हैं कि वर्णात्मक शब्द ही प्रयत्नजन्य होता है, वायु आदि से जनित ध्वन्यात्मक शब्द नहीं । दूसरे लोगों का कहना है कि वायु आदि शब्द भी प्रयत्न से निष्पादित होते हैं, किन्तु शब्दधारा का प्रथम शब्द ही प्रयत्नसाध्य होता है, द्वितीय, तृतीयादि नहीं । अतः प्रयत्नानन्तरीयकत्व शब्दरूप पक्ष के एक देश में ही है ।
1. न्यायभूषण, पृ, ३११ 2. अस्यास्मदादिप्रयत्नापेक्षत्वात् ।- न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, पृ. २१८ 3, न्यायभूषण, पृ. ३११ 4. न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. ११५
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