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________________ न्यायसार अहेतु होने पर भी हेतुसाम्य के कारण जो हेतु की तरह आभासित होते हैं, वे हेत्वाभास कहलाते हैं । हेत्वाभासों में हेतु की तरह प्रतिज्ञा के पश्चात् प्रयोग तथा पक्षलव, सपक्षसत्त्व व विरक्षासत्त्व इन हेतुरूपों में किसी एक का होना ही उनमें हेतुसाम्य है अर्थात् जिस प्रकार हेतु प्रतिज्ञा के पश्चात प्रयुक्त होते हैं, उसी प्रकार हेत्वाभास भी । तथा हेत्वाभासों में भी पक्षसत्तादि में से किसी न किसी हेतुरूप की सत्ता रहती है । छल, जाति आदि में हेत्वाभासों की तरह दूषणतासाम्य होने पर भी पक्षसत्त्वादिरूप हेतु के किसी भी रूप की सत्ता न होने से उनमें हेत्वाभास-लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं है। उद्योतकर ने सद्धेतु और असद्धेतु का अन्तर बताते हुए कहा है-'सायकासाधकत्वे तु विशेषः । हेतोः साधकत्वं धर्मः, असाधत्वं हेत्वाभासस्य । किं पुनस्तत् ? समस्तलक्षणोपपत्तिः असमस्तलक्षणोपपत्तिश्च ।। अर्थात हेतु साध्य का साधक होता है और हेत्वाभास साध्य का असाधक, यही इन दोनों में भेद है। हेतु में साध्यसाधकता हेतु का पक्षसत्त्वादि पांच धर्मों से युक्त होता है तथा हेत्वाभास का उन पांच धर्मो में से किसी न किसी से अयुक्त होना है। वार्तिककार का आशय यह है कि सोध्यसाधनक्षम हेतु में पांच रूपों का होना आवश्यक है । वे पांच रूप (१) पक्षसत्त्व (२) सपनसत्त्व (३) विपक्षासत्त्व (४) असत्प्रतिपक्षत्र और (५) अबाधितविषयत्व हैं। इनमें से किसी एक धर्म का अभाव हे ने से हेत्वाभामता घटित होती है। सूत्रकारसरणि से कुछ अलग होकर भासर्वज्ञ ने ६ हेत्वाभास स्वीकार किये हैं। उन्होंने 'सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमकालातीताः' इस न्यायप्तत्र का अन्यथा विन्यास करते हुए ६ हेत्वाभासों का उल्लेख किया है-'असिद्धविरद्धानकान्तिकानध्यत्रसितकालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाः' ।' सूत्र का अन्यथा विन्यास सूत्रार्थसंग्रह द्वारा अध्येता की व्युत्पत्ति के लिये है। तात्पर्य यह है कि अक्षरशः सूत्रानुसरण करने पर न्याय का विद्यार्थी भी छान्दस छात्र की तरह बन जायेगा । उसमें तार्किकप्रज्ञा का उदय न होकर केवल श्रद्धापरकता रह जायेगी। अर्थात जिस प्रकार शब्दप्रधान वेद का श्रोता वेद के शब्दों में तथा क्रम में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकता, अतः वेद आदेशप्रधान बन जायेगा और व्युत्पत्ति उसको प्रयोजन नहीं रहेगी । अर्थात् वेदों में जो जैसा कहा गया है, वैसा ही छान्दस छात्र मान लेता है, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं करता, उसी प्रकार नैयायिक अध्येता भी बन जायेगा । अतः क्रम का परिवर्तन किया गया है । अपि च, सूत्रोक्त पांच हेत्वाभासों से अतिरिक्त अनध्यवसित हेत्वाभास की उपयोगिता बतलाना भी उनका प्रयोजन है। अनध्यवसित हेत्वाभास के निरूपण में प्रसंगतः उन्होंने यह स्पष्ट उल्लेख कर दिया है कि न्यायसूत्र हेत्वाभासों की पंचत्व संस्था के अवधारण के लिये नहीं है, अपितु दिग्दर्शन के लिये । अतः सूत्रकार से विरोध नहीं है। 1. न्यायवार्तिक, १।२१४ 2. न्यायसूत्र, १।२।४ 3. न्यायसार, पृ. ७ 4. न्यायभूषण, पृ. ३०८ ३. न्यायभूषण पृ. ३०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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