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अनुमान प्रमाण
असिद्ध स्त्रकार ने असिद्ध हेत्वाभास को साध्यसम शब्द से व्यपदिष्ट किया है तथा 'साध्याविशिष्टः साध्यत्वात् साध्यसमः' यह उसका लक्षण किया है । अर्थात् जिस हेतु की पक्ष में साध्य की तरह सिद्धि अपेक्षित होती है, वह हेतु साध्य से अविशिष्ट (समान) होता है, अत एव उसे साध्यसम हेत्वाभास कहते हैं । अतः यह स्पष्ट है कि जिस हेतु का पक्ष में रहना सन्दिग्ध या अनिश्चित हो बही साध्यसम है। भाष्यकार ने इसका उदाहरण-'छाया द्रव्यं गतिमत्त्वात्' राह दिया है। इस अनुमान में गतिमत्त्व हेतु साध्यसम है, क्योंकि छाया में गतिमत्त्व सिद्ध नहीं होने से साधनीय है। इसीलिये वातिककार ने भी कहा है कि जैसे छाया में द्रव्यत्व साध्य है, उसी प्रकार उसमें गतिमत्त्व भी साध्य है। वातिककार ने प्रज्ञा पनीयधर्म. समान, आश्रयासिद्ध तथा अन्यथासिद्ध भेद से असिद्ध तीन प्रकार का बतलाया है। इनमें प्रज्ञापनीयधर्मसमान असिद्धभेद ही भाष्यकार का स्वरूपासिद्ध है। वाचस्पति मिश्र ने तात्पर्यटीका में इस तथ्य की और संकेत किया है। भाष्यकार ने स्वरूपासिद्ध आश्रयासिद्ध तथा अन्यथासिद्ध -तीनों असिद्धों का 'छाया द्रव्यं गतिमत्त्वात्' यह एक ही उदाहरण उपन्यस्त किया है । इस उदाहरण में छाया में गतिमत्त्व हेतु के स्वरूपतः असिद्ध होने से स्वरूपासिद्ध है। छाया में कुम्भादि की तरह देशान्तरदर्शन के द्वारा गतिमत्ता सिद्ध होने पर स्वरूपासिद्ध का उदाहरण न मानने पर यह आश्रयासिद्ध का उदाहरण है, क्योंकि छाया के प्रकाशाभावरूप होने के कारण उसकी सत्ता न होने से यहां आश्रय असिद्ध है तथा छाया के भावाभावरूप होने से चाहे भावरूप नहीं है, तथापि देशान्तरदर्शनरूप गतिमत्त्व छाया में विद्यमान है, क्योंकि देशान्तरदर्शन का आश्रय भाव व अभाव दोनों होते हैं, ऐसा मानने पर छायारूप आश्रय के असिद्ध होने से यह आश्रयासिद्ध नहीं है, ऐसा मानने पर यही अन्यथासिद्ध का उदाहरण बन जाता है, क्योंकि छाया का देशान्तरदर्शन स्वभावतः नहीं है, अपितु तेज के आवरक द्रव्य की गति के द्वारा औपाधिक है, क्योंकि आवरक द्रव्य के तेज का अनिधान होने पर हो तेज के असंनिधान से युक्त दव्य ही छाया कहलाती है । अतः देशान्तरदर्शनरूप गतिमत्त्व हेतु का द्रव्यत्वरूप साध्य के साथ स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है, अपि तु आवरक द्रव्यरूप उपाधिकृत होने से औपाधिक है । औपाधिक सम्बन्ध को ही अन्यथासिद्ध कहते हैं । इसी औपाधिक सम्बन्ध के कारण ही उदयनाचार्य ने इसे व्याप्यत्वासिद्ध संज्ञा से व्यवहत किया है। उत्तरकालिक न्यायग्रन्थों में असिद्ध के ये तीनों भेद स्वरूपासिद्ध, आश्रयासिद्ध तथा व्याप्यत्वासिद्ध नामों से व्यपदिष्ट किये गये हैं। 1. न्यायसूत्र, १/२/८
2. न्यायवार्तिक १/२/८ 3. अत्र भाष्यकारेण स्वरूपासिद्धाश्रयासिद्धान्यथासिद्धानां साधारणमुदाहरणमुक्तम् ।
-न्यायवार्तिकतात्पर्यरीका, १/२/८ भान्या-१३
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