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________________ न्यायसार 'जातं च सम्बद्धं चेत्येकः कालः' इस उक्ति के द्वारा कर दिया है। यह जयन्त भट्ट ने कहा है। तात्पर्यटीकाने में यह उक्ति अथासम्बन्धस्य विद्यमानत्वं (युतसिद्धिः), तत्सत्यपि पृथग्गतिमत्वे नावयविनोऽस्ति, जातः सम्बद्धश्चेत्येकः कालः' इस रूप से शब्दतः उपलब्ध होती है। इससे यह भी स्पष्ट सिद्ध है कि जयन्त भट्ट ने 'आचार्याः' या 'आचार्य.' पद तात्पर्याचार्य के लिए प्रयुक्त किये हैं ओर बहुवचन द्वारा वह सम्मान उनके मत को उद्धृत करता है। न्यायमञ्जरीग्रन्धभङ्ग के रचयिता चक्रधर का 'आचार्याः' के विषय में “इह च सर्वत्राचार्यशब्देन उद्द्योतकरविवृतिकृतो रुचिकारप्रभूतयों विवक्षिताः। यह स्पष्टीकरण भी प्रस्तुत निष्कर्ष में बाधक : साधक है, क्योंकि उनके मतानुसार 'आचार्याः' पद से उद्योतकरीय न्यायवार्तिक के व्याख्याकार रुचिकार आदि अभिप्रेत हैं और उद्योतकरीय न्यायवार्तिक के व्याख्याकारों मैं वाचस्पति मिश्र भी अन्यतम हैं । उपमानप्रकरण में भी जयन्त भट्ट ने 'अद्यतनास्तु' से वाचस्पतिमत का ही अर्थतः प्रतिपादन किया है, क्योंकि उस मत का प्रतिपादन तात्पर्यटोका में स्पष्टरूप से उपलब्ध होता है । अतः वह भी वाचस्पति मिश्र जयन्त से पूर्ववती है इसी को सिद्ध कर रहा है, न कि जयन्त वाचस्पति मिश्र से पूर्ववर्ती है इसको । तात्पर्यपरिशुद्धिकार उदयनाचार्य की 'अत्रोपमानस्य फले विप्रतिपद्यमानान् प्रति साशङ्क जरन्नैयायिकजयन्तप्रभृतीनां परिहारमाह'। यह उक्ति सर्वथा भ्रान्त है और ऐसो भ्रान्ति प्रायः दिग्गज पण्डितों में भी देखी जाती है। जैसे, तत्त्वचिन्तामणि में उपमानखण्ड में 'तस्मादागमप्रत्यक्षाभ्यामन्यदेवेदमागमस्मृतिसहितं सादृश्यज्ञानमुपमानप्रमाणम् इति जरन्नैयायिकजयन्तप्रभृतयः' यह लिखा है, किन्त यह उदधरण न्यायमंजरी में उपमानप्रकरण में कहीं भी उपलब्ध नहीं होता, जबकि उपमानसूत्र की व्याख्या में तात्पर्यटीका में अक्षरशः मिलता है।' ___उपर्युक्त अन्तःसाक्ष्यों के आधार पर यह स्पष्ट सिद्ध है कि वाचस्पति मिश्र जयन्त से पूर्ववर्ती हैं । अतः 'न्यायसूचीनिबन्ध' में 'वस्वङ्कवसुवत्सर' में वत्सर से विक्रमाब्द का ग्रहण ही सर्वथा उपयुक्त है, शक संवन् नहीं । और यह भी 1. न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. २४५. 2. न्यायबार्तिकतात्पर्यटीका, २-१-३२. 3. न्यायमजरीग्रन्थिमा, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति निद्यामन्दिर, अहमदाबाद, १९७२, पृ. ४४ 4. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, पृ. १६८ 5. तात्पर्यपरिशुद्धि, १-१-६. 6. तत्वचिन्तामणि, एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता, पृ. ६१. 7. तस्मादागमप्रत्यक्षाभ्यामन्यदेवेदमागमस्मृतिसहितं सादृश्यज्ञानमुपभान.ख्थं प्रमाणमास्थेयम् । . -न्यायवार्तिक्तात्पर्यटीका, पृ. १६८. 8. This can not be Saka 898, for apart from the decisive use of वत्सर, which by this time had come to signify the Samvat era. -Seal, B. N. The Positive Sciences of the Ancient Hindus, p.51. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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