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परिचय
समय इन्द्रियसंनिकर्षजन्य कपित्थालोचन को सत्ता न होने से उसे उपादानादिबुद्धिरूप फल के प्रति कारण कैसे माना जा सकता है - इस आशंका का समाधान करते हुए न्यायमंजरीकार ने कहा है कि तात्पर्याचार्य ने इसका समाधान किया है कि ज्ञानों का क्रम तो उपर्युक्त हो है, किन्तु कपित्थोत्पादान-बुद्धिरूप फल के प्रति वे इन्द्रियसंनिकर्षजन्य आलोचनज्ञान को प्रमाण नहीं बतला रहे हैं । वह आलोचनाज्ञान इन्द्रियसंनिकर्षादिरूप प्रत्यक्षप्रमाण का फल ही है, स्मृत्तिजनक होने से स्वयं प्रमाण नहीं, किन्तु उससे उत्पन्न होने वाली सुखसाधनतास्मृति स्वयं प्रत्यक्ष प्रमाण है, क्योंकि 'यह कपित्थजातीय है' इत्याकारक परामर्श को वह इन्द्रियार्थसंनिकर्षसहकृत होकर उत्पन्न कर रही है । प्रत्यक्षजनित वह परामर्शज्ञान भी जिस प्रकार प्रत्यक्ष जनित धूमज्ञान परोक्ष अग्नि की सत्ता को बतलाने से अनुमान प्रमाण है, उसी प्रकार कपित्थजातीय पदार्थ सुखसाधन है, इसका जनक होने से अनुमान प्रमाण है। और कपित्थजातीय में आनुमानिक सुखसाधनताज्ञान भी इन्द्रियसंनिकर्ष की सहायता से कपित्थादि में उपादेयताज्ञान को उत्पन्न करता हुआ प्रत्यक्ष प्रमाण है। और वह प्रत्यक्ष प्रमाण कपित्थ में उपादेयताज्ञानरूप फल को उत्पन्न करता है। इस प्रकार कपित्थादिविषयक सुखसाधनताज्ञानरूप अनुमान प्रमाण कपित्थादि में इन्द्रियसंनिकर्ष के साथ उपादेयताज्ञान को उत्पन्न करता हुआ प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाता है। यहां न्यायमंजरीकार ने तात्पर्याचार्य के मत को अर्थतः उद्धृत किया है, शब्दतः नहीं । तात्पर्यटीका में यह समाधान न्यायसूत्र के तृतीय सूत्र की व्याख्या में स्पष्ट उपलब्ध है।
दूसरा प्रकरण
न्यायदर्शन, द्वितीय अध्याय, प्रथम आनिक के 'न चैकदेशोपलब्धिरवयविसद. भावात 'ठ सूत्रकी व्याख्या में अनिष्पन्न अवयव्यादि का अवयवादिक रण से सम्बन्ध हो नहीं सकता, क्योंकि सम्बन्ध द्विष्ठ होता है तथा कार्यकी पूर्वनिष्पत्ति मानने पर अवयव-अवयवो में युतसिद्धता आ जाती है, इस दोष का परिहार तात्पर्याचार्य ने
1. अत्राचार्यास्तावदाचक्षते साधु चोदित सत्यामीदृश स्वार्थ ज्ञानानां क्रमः, न वयं प्रथमा. लोचनज्ञानस्य उपादानादिषु प्रमाणतां ब्रमः ..प्रत्याक्षप्रमाणं भवति ।
-न्ययायामंजरी, पूर्वभाग, पृ. ६२. 2 तत्र तोयालोचनमथ तोयविकल्पोऽथ च तज्जातीये दृष्टचरपिपासोपशमनहेतुभावस्य स्मृति.
बीजसंस्कारोबोध, अथ तस्य स्मरणम् अथ लिङ्गमरामर्शः तजातीय चेदमिति । तदिदं लिङ्गमरामर्शविज्ञानं साक्षात्कारवत् लिहे विनश्यवस्थव्याप्तिस्मरणसहकारि दृश्यमानस्य सलिलस्य पिपासोपशमनहेतुतया अनुमानमुखेनोपादानबुद्धिरुच्यते ।
-न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, पृ. १०२, 3. न्यायसूत्र, २-१-३३ .
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