SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० न्यायसार इस द्वितीय मत का 'प्रत्यक्षमयी च (प्रसिद्धः), यथा गोसादृश्यविशिष्टोऽयमीदृशः पिण्ड इति । तत्र प्रत्यक्षमयी प्रसिद्धिरागमाहितस्मृत्यपेक्षा समाख्यासम्बन्धप्रतिपत्तिहेतुः, इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा निरूपण किया है। किन्तु यह मत जयन्त का है, इसमें कोई प्रमाण नहीं । यदि जयन्त का स्वयं का होता, तो 'वयं तु ब्रमः' रूपसे उल्लेख करते । जयन्त ने तो उपमानफल के सम्बन्ध में वृद्ध नैयायिका तथा अद्यतनों के मत का उल्लेख किया है । वस्तुतः यह मत तात्पर्यटीकाकार का है। उसीका 'अद्यतनास्तु' से जयन्त भट्ट ने उल्लेख किया है, क्योंकि यह मत प्रथम वाचस्पति के द्वारा ही तात्पर्यटीको में बतलाया गया है। जयन्त भट्ट वाचस्पति के परवती थे, यह आगे बतलाया जानेवाला है । अतः जयन्त के द्वारा उसका उल्लेख उपयुक्त है। २ क्षणभङ्गाध्याय तथा क्षणभङ्गसिद्धि में वाचस्पति से पूर्व न्यायभूषण (भासर्वज्ञ) का उल्लेखरूप द्वितीय तर्क भी भासर्वज्ञ के वाचस्पति से पूर्व होने में तात्त्विक प्रमाण नहीं हो सकता, जब तक किसी प्रमाण से भासर्वज्ञ का वाचस्पति से पूर्व अस्तित्व सिद्ध नहीं हो जाता । अपि तु वाचस्पति मिश्र ही भासर्वज्ञ से पूर्ववर्ती हैं, जसा कि आगे बतलाया जानेवाला है। तृतीय तरूप संख्यानिरूपण में 'संवि देव हि भगवती वस्तूपगमे नः शरणम्' यह वाचस्पति की उक्ति केवल उद्योतकारमतसमर्थनार्थ तथा संख्या के पृथग्गुणत्व की स्वीकृति में प्रमाणरूप से उपन्यस्त है। इसके द्वारा भासर्वज्ञ के मत का निराकरण नहीं है। अन्यथा द्वित्वसंख्या के खण्डन के लिये प्रस्तुत भासर्वज्ञ के तर्कों का वे निराकरण करते। न्यायलीलावतीकार श्री वल्लभाचार्य ने भी द्वित्वसंख्यानिराकरण परक भासर्वज्ञमत की आलोचना करते हुए वाचस्पति की इस उक्ति को द्वित्वसंख्यासिद्धि में प्रस्तुत किया है। भामर्वज्ञमत के निराकरणार्थ वाचस्पति ने यह तर्क उपन्यस्त किया हैं, यह उन्होंने नहीं कहा है । अतः भासर्वज्ञ को वाचस्पति से पूर्व सिद्ध करने के लिये प्रस्तुत सभी तर्क तकाभास हैं। वस्तुतः वाचस्पति मिश्र न्यायमञ्जरीकार जयन्त भट्ट से भी पूर्ववर्ती हैं, क्योंकि जयन्त भट्ट ने अपनी न्यायमंजरी में दो प्रकरणों में स्पष्टरूप से वाचस्पति के मत को उद्धृत किया है। __पहिला प्रकरण वह है, जिसमें यह बतलाया गया है कि इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न आलोचनाज्ञान का हानोपादानादि फल नहीं हो सकता, क्योंकि पहले इन्द्रियजन्य कपित्थविषयक आलोचनाज्ञान, तदनन्तर पूर्वानुमतकपित्थादि की सुखसाधनता का स्मरण, ततः यह भी कपित्थजातीय है इत्याकारक परामर्शज्ञान, तदनन्तर इस कपित्थ में सुखसाधनता का निश्चय, तदनन्तर उसमें उपादेयताज्ञान होता है। अतः उपादानज्ञान के 1. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, पृ. १९८. 2. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, पृ. १९८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy