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________________ परिचय . किन्तु प्रो. दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य आदि ने भासर्वज्ञ को वाचस्पति के ज्येष्ठ समसामयिक सिद्ध करने के लिये जो तर्क प्रस्तुत किये हैं. वे ग्राह्य नहीं हैं। प्रथम तर्क में यह बतलाया गया है कि न्यायमञ्जरीकार जयन्त भट्ट का काल काश्मीर नरेश शङ्कर वर्मा (८८३ - ९०२ ई.) के समकालिक होने से सुनिश्चित है। उपमानकाल के सम्बन्ध में विप्रतिपद्यमान पुरुषों के प्रति आशङ्कःपूर्वक जरन्नैयायिक जयन्त आदि का परिहार 'यपि यथो गौरव गवयः' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा बतलाया है, एतदर्थक तात्पर्यपरिशुद्धि में उदयनाचार्य की उकि से सिद्ध होना है कि वाचस्पति ने जयन्त भट्ट के मत को अर्थतः ग्रहण किया है। इस रीति से जब वाचस्पति मिश्र जयन्त भद्र से परवता हैं, तब वाचस्पति का काल ८९८ विक्रम संवत् अर्थात् ८४१ ई. सिद्ध नहीं होता । यह तर्क इसलिये असंगत है कि केवल तात्पर्यपारशुद्धिकार की उपर्युक्त उक्ति से ही यह नहीं माना जा सकता कि तात्पर्यटीकाकार ने जयन्त का मत उद्धृत किया है। - न्यायमंजरी के उपमानप्रकरण को देखने से यह स्पष्ट है कि न्यायमंजरीकार ने उपमान-फल के विषय में दो मत बतलाये हैं। प्रथम यह है कि 'यथा गौस्तथा गवयः' यह वाक्य अप्रसिद्ध गवय का प्रसिद्ध गो के साथ सादृश्य बतलाता हआ अप्रसिद्ध गवर्यापण्ड गवय शब्द का संज्ञी है यह बतलाता है और यह उपमान का फल है । यद्यपि यह ज्ञान 'यथा गौस्तथा गवयः' इस वाक्य से भी हो सकता है, तथापि वक्ता पुरुष 'गवयपिण्ड गवय शब्दवाच्य है' इसके ज्ञान के लिये 'यथा गौस्तथा गवयः' इत्याकारक सादृश्यज्ञान को उसका उपाय बतला रहा है । अतः आरण्यक पुरुष के वाक्य से गवय शब्द गवयपिण्ड का वाचक है इस अर्थ को नागरिक प्रतिपत्ता नहीं जानता, किन्तु अरण्य में गवयपिण्ड को देखकर गाय के साथ उसका सादृश्य देखता है और 'यथा गौस्तथा गवयः' इस अतिदेश-वाक्यका स्मरण कर उसके द्वारा ही उपर्युक्त उपमानफल का ज्ञान करता है । उपमानफल के सम्बन्ध में इस मत का उल्लेख वृद्ध नैयायिकों के नाम से किया है। उपमानफल के सम्बन्ध में दूसरा मत जयन्त ने यह बतलाया है कि 'यथा गौस्तथा गवयः' इस अतिदेशवाक्य को सुननेवाला पुरुष वन में जाता है और इन्द्रिय द्वारा अप्रसिद्ध गवयपिण्ड में प्रसिद्ध गो के सादृश्य का ज्ञान करता है और गो के समान गवय होता है इस अतिदेशवाक्यार्थ का स्मरण होता है । स्मरण होते ही यह गत्रय शब्द गवयपिण्ड का वाचक है ऐसा संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानरूप फल उत्पन्न हो जाता है । अतः इन्द्रियजन्य गवय में गोसादृश्यज्ञान 'यही गवयपिण्ड गवयशब्दवाच्य है' इस प्रतीतिरूप फल का जनक होने से उपमान है। इस मत को जयन्त ने 'अद्यतनास्तु' पद से बतलाया है। 1. अत्र वृद्धनैय यिकास्तावदेवमुपमा नस्वरूपमाचक्षते संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतीतिफलं प्रसिद्धतरयोः सारूप्यप्रतिपादकमतिदेशवाक्यमेवोपमानम्...इत्यादि । -न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. १२८-१२९ 2. न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. १२९, भो.न्या--२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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