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________________ न्यायसार १८५०-११०० ई. माना है। अतः वाचस्पति का काल ६७६ ई.) मानने पर भी उदयन के समकालीन होने को आपत्ति का निराकरण हो जाता है। ३. ज्ञानश्री के अनुसार चार विभिन्न दिक्प्रदेशों से आनेवाले न्यायशास्त्र के दिग्गज विद्वान शंकर, भासर्वज्ञ, त्रिलोचन और वाचस्पति हैं। छन्दोभंग न हो, इस दृष्टि से न्यायभूषण के स्थान पर पर्याय शब्द न्यायालंकरण का त्रिलोचन से पहले प्रयोग किया गया है । परन्तु ज्ञानश्री के क्षणभंगाध्याय और रत्नकीति की क्षणभंगसिद्धि में स्पष्टतया न्यायभूषण नाम दिया है और वह भी त्रिलोचन के बाद तथा वाचस्पति के पहले। इस नामक्रम को एतिहासिक समझ कर भासर्वज्ञ को वाचस्पति से पूर्ववती' माना जाता है। (३) भासर्वज्ञ ने द्वित्व के पृथग्गुणत्व का खण्डन किया है। अतः श्री वल्लभाचार्यने न्यायलीलावती में भासर्वज्ञ की आलोचना करते हुए कहा है - "तदिदं चिरन्तनवैशेषिकमतदूषणं भूषणकारस्यातित्रपाकरम् । तदियमताम्नातता भासर्वज्ञस्य यदयमाचार्यमध्यवमन्यते । तथा च तदनुयायिनस्तात्पर्याचोर्यस्य सिंहनादः 'संविदेव हि भगवती'त्यादि ।"" यहां आचार्यपद से उद्योतकर अभिप्रेत हैं, जिनकी द्वित्वस्थापना का भासर्वज्ञनने खण्डन किया है । तात्पर्याचार्य वाचस्पति मिश्र हैं, जिन्होंने भासर्वज्ञ की आलोचना का खण्डन तथा उद्योतकरपक्ष का समर्थन करते हुए कहा है - 'संविदेव हि भगवती ।' तात्पर्यटोका में इसी संदर्भ में यह पंक्ति मिल गई है - 'संविदेव भगवती वस्तूपगमे नः शरणम् ।' इस प्रकार वाचस्पतिकृत भासर्वज्ञमतखण्डन से वाचस्पति का भासज्ञ की अपेक्षा परवर्तित्व ज्ञात होता है। __ भासर्वज्ञ त्रिलोचन के परवती थे, क्योंकि उन्होंने उदाहरणाभासों के प्रसंग में त्रिलोचनसम्मति का उल्लेख किया है, जैसा कि भट्ट राघव के कथन से स्पष्ट हो जाता है । त्रिलोचन वाचस्पति के गुरु थे, जैसा कि तात्पर्यटीका में उन्होंने स्पष्ट निर्देश किया है - 'त्रिलोचनगुरून्नीतमार्गानुगमनोन्मुखः । यथान्यायं यथावस्तु व्याख्यातमिदमोदृशम् ॥' इससे यह ज्ञात होता है कि भासर्वज्ञ त्रिलोचन के कनिष्ठ समसामयिक थे और वाचस्पति के ज्येष्ठ समसामयिक । 1. Ibid, P. 51. 2. lbid, P. 36. 3. lbid, P. 36. 4. न्यायलीलावती, पृ. ४१. 5. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, कलकत्ता, १९४४, पृ. ५०६. 6. अन्ये तु सन्देहद्वारेणापरानष्टावुदाहरणाभासान् वर्णयन्ति ।-न्यायसार, पृ. १३. 7. अत्राद्याः षडित ये तु दृष्टान्तदोषद्वारेणाभासा अभिहितास्ते यथा दृष्टान्तदोषनिश्चयात निश्चितास्तथा तदोषसन्देहात् सन्दिग्धा इति मत्स्वमतं तत्रिलोचनाचार्यसम्मतमित्याह । न्यायसारविचार, पृ. ५९, 8. न्यायदर्शन-प्रथम भाग (मिथिला विद्यापीठ, १९६८), पृ. २२६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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