________________
४
न्यायसार
भासर्वज्ञ ने न्यायभूषण में दिङ्नाग, धर्मकीर्ति और प्रज्ञाकरगुप्त इन बौद्ध दार्शनिकों के मतों का विस्तारपूर्वक निराकरण किया है । महापाल के समय, जिनका देहावसान ९४० ई. में हुआ, प्रज्ञाकर गुप्त विद्यमान थे । ' भासर्वज्ञ के सिद्धान्तों का सर्वप्रथम खण्डन करनेवाले बौद्धों में ज्ञानश्री थे । उनको अतीश अथवा दीपंकर श्रीज्ञान (९८२ - १०५५ ए. डी.) का समकालवर्ती बतलाया है । " अतः यह कहा जा सकता है कि भासर्वज्ञ के काल की उत्तरसीमा दसवीं शताब्दी से आगे नहीं हो सकती । भारतीय दर्शन के इतिहासविदों के पूर्वसंकेतित मतों का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि उनमेंसे कतिपय भासर्वज्ञ का काल दसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मानते हैं और कुछ अन्य दसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध । परन्तु इतना निश्चित है कि भासज्ञ का काल दसवीं शताब्दी है और इसके मध्यकाल में वे विद्यमान थे ।
भासर्वज्ञ और जयन्त का पौर्वापर्य
भासर्वज्ञ जयन्तभट्ट के परवर्ती थे । उनके परवर्तित्व को प्रमाणित करने के लिये अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं । उनमें से कतिपय यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं : १. भासर्वज्ञ यदि जयन्त के परवर्ती न होते, तो जयन्त त्रिप्रमाणवादनिरूपण के प्रसंग में अवश्य भासर्वज्ञ का मत देकर खण्डन करते, परन्तु जयन्त ने केवल सांख्य की चर्चा की है - त्रीणि प्रमाणानीति सांख्याः । *
B
२. दिक्काल के समर्थन के अवसर पर जयन्त ने दिक्काल की भासर्वज्ञकृत अवहेलना का खण्डन नहीं किया है, अतः भासर्वज्ञ परवर्ती थे । ३. यदि भासर्वज्ञ जयन्त के पूर्ववर्ती होते, जयन्त भासर्वज्ञकृत उपमान प्रमाण की अवधीरणा के
तो उपमाननिरूपण के प्रसंग में अपराध को क्षमा न करते ।
४. 'नित्यं सुखमात्मनो महत्त्ववन्मोक्षे व्यज्यते' (न्या भा १११।२२ ) इस न्यायभाष्यकार लक्षित पक्ष को जयन्त ने वेदान्तियों का ही बतलाया है - 'तत्र वेदान्तवादिन आहु:'" । मोक्ष में नित्यसुखाभिव्यक्ति पक्ष को मानने वाले भासर्वज्ञ के मत का जयन्त ने निर्देश नहीं किया है, अतः भासर्वज्ञ की परिवर्तिता सिद्ध होती है ।
1. Vidyabhusana, S. C. - A History of Indian Logic, P. 336.
2. Bhattacharya, D. C. - History of Navya - Nyaya in Mithila, P. 36.
3. Ibid, P. 15.
4. न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. २६.
5. तस्मादेकोऽव्ययं कालः क्रियाभेदाद्विभिद्यते ।
एतेन सदृशन्यायान्मन्तव्या दिक्समर्थिता ॥ -न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. १२७.
6. न्यायमंजरी, उत्तरभाग, पृ. ७७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org