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न्यायसार
उपयुक्त आशंकाओं का समाधान भासर्वज्ञ ने इस प्रकार किया है कि यह नियम नही कि संशय में विकल्पात्मक दो कोटियों का उल्लेख हो ही । विकल्पात्मक दो कोटियों के उल्लेख के बिना भी संशय होता है। जैसे- जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है, यह निश्चय कर अपनी मृत्यु के विशिष्ट काल को न जानता हुआ कोई सन्देह करता है कि मेरी मृत्यु कब होगी ? आज मृत्यु होगी या कलये दो कोटियां यहां अर्थतः प्राप्त हैं, किन्तु 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' की तरह उसका उल्लेख नहीं किया गया है । अतः जिस प्रकार 'मृत्युमें कदा भविष्यति ?' यह अविकल्पात्मक, संशय है, वैसे ही 'पुरुषेणानेन भवितव्यम' यह एककोदिक ऊह भी विकल्परहित संशय ही है । इसमें स्थाण्वादिपक्ष की उपेक्षा पुरुषपक्ष में अधिक कारणों के होने से द्रष्टा पुरुषपक्ष की संभावना करता है, किन्तु पक्षान्तरों का सर्वथा अभाव वहां नहीं बतलाया गया है । अतः पक्षान्तर की भी आशंका संभावित है और इस प्रकार अर्थतः वहां भी संशय की तरह द्विकोटिक ज्ञान है । दूसरी कोटि का सर्वथा निरास करने पर तो फिर ऊह संशय न रहकर निर्णय ही हो जायेगा क्योंकि समस्त पक्षान्तराभावोपलक्षित ऊर्ध्वत्वादि परुष का विशेष धर्म होकर निर्णय का निमित्त बन जाता है । इसलिये ऊह में कोट्यन्तर का स्पष्ट कथन भले ही न हो, परन्तु उसकी आशंका तो बनी रहती है । अन्तर इतना ही है कि ऊह में एक कोटि उत्कट होतो है और संशय में दोनों कोटियां समान ।' इसी आधार पर उसे संशय न मानना असंगत है।
सूत्रकार द्वारा ऊह को पृथक् उपादान भी ऊह की संशय से पृथक्ता का साधक नहीं, क्योंकि प्रतिज्ञादि अवयवों के प्रमाणरूप होने पर भी जैसे परानुमितिप्रतिपत्यर्थ उनका प्रमाण से पृथक् कथन किया है तथा जिस प्रकार हेत्वाभासो का निग्रहस्थानों में अन्तर्भाव होने पर भी प्रयोजनमेद से उनका पृथक् कथन किया हैं उसी प्रकार संशय मे अन्तभूत होने पर भी प्रयोजनविशेष के लिये ऊहरूप तर्क को पृथक् कथन है।
ऊह के पृथक् अभिधान का प्रयोजन वात्स्यायनआदि पूर्वाचार्यों ने ऊह का संशय से पृथक् कथन का प्रयोजन प्रमाणों का अनुग्रह माना है। भासर्वज्ञ के परवर्ती किरणावलीकार उदयन ने भी तर्क की प्रमाणानुग्रोहकता का निर्देश किया है तथा अनियत जिज्ञासा के विच्छेद से नियत
1. न्यायभूषण, पृ. २०. 2. सत्य, संशयतासाम्येऽप्यन्तरालिकभेदभाक् ।
ऊहोडयमुत्कट: कोटावेकस्या मस्तु का क्षतिः ।।-न्यायमुक्काबली, प्रथम भाग, पृ २२. 3. तर्कविविक्ते विषये प्रमाणानि प्रवर्तमानानि तर्केण अनुगृह्यन्ते इति पूर्वाचार्याः ।
-न्यायभूषण, पृ. २१,
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