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प्रमाणसामान्यलक्षण
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से आकान्त हैं ।' न्यायसूत्रकार ने भी इसी कारण से संशय में प्रमात्व का व्यावर्तन करने के लिये प्रत्यक्ष - लक्षण में 'व्यवसायात्मक' पद का प्रयोग किया है, ऊह तथा अनध्यवसाय की व्यावृति के लिये किसी अन्य पद का प्रयोग नहीं किया है. क्योंकि उनको भी ऊइ तथा अनध्यवसाय के अनिश्चयात्मक ज्ञान होने से उन दोनों की संशयान्तर्भूतता अभिप्रेत है । यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अनवधारणज्ञानरूप समानता के कारण ऊह, अनध्यवसाय तथा संशय - तीनों को यदि एक ही माना जायेगा, तो प्रत्यक्षादि चारों प्रमाणों को भी प्रमासाधनतारूप समानता के आधार पर एक ही मानना चाहिये । इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि प्रत्यक्षादि चारों प्रमाण प्रमासाधनत्वेन एक ही हैं, केवल प्रत्यक्ष प्रमासाधनत्वादि अवान्तर विशेषताओं के कारण उनमें भेदव्यवहार है. उसी प्रकार सशय, ऊह तथा अनध्यवसाय अवधारणात्मक होने से एक ही हैं, केवल अवान्तर भेद उनमें है । प्रमासाधनत्वेन प्रत्यक्षादि प्रमाणों के एक होने पर भी प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम की भिन्नता का व्यवहार समाप्त नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष व्यवहार का विशिष्ट निमित्त इन्द्रियार्थसंनिकर्ष अनुमान और आगम में नहीं है, इसलिये प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन प्रमाणों का अवान्तर भेद बना रहता है | "
ऊह का संशय में अन्तर्भाव स्वीकार न करने वाले नैयायिकों तथा वैशेषिकों की यह आशंका है कि संशय 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इत्याकारक विकल्पात्मक कोटिद्वय का अवगाहन करता है, परन्तु ऊह में 'स्थाणुरयं पुरुषो वा' इत्याकारक पदार्थद्वयाश्रित विकल्पात्मकता का अभाव है । क्योंकि अश्ववाहूयप्रदेश में स्थाणु की संभावना अनुपपन्न है" इस बाधक प्रमाण से स्थाणुत्व - कोटि की आशंका जब निवृत्त हो जाती है, तब 'पुरुषेणानेन भवितव्यम्' इत्याकारक एककोटिक संभावनात्मक ज्ञान ऊह कहलाता है । अत इसे संशय नहीं माना जा सकता तथा पुरुषत्वसाधक शिरःपाण्यादिरूप साधक प्रमाण के अभाव से इसे निर्णय भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि निर्णय के लिये प्रतिपक्ष का निषेधमात्र ही अपेक्षित नहीं है, अपितु स्वपक्षसाधन भी जैसाकि सूत्रकार ने बतलाया है- संशयानन्तर स्वपक्ष की स्थापना तथा परपक्ष के निराकरण द्वारा जो अर्थविनिश्चय होता है, उसे निर्णय कहते हैं । ऊह में केवल परपक्षप्रतिषेध प्रतीत होता है, न कि पुरुषत्वरूप पक्ष का साधन । इसलिये ऊह निर्णय में अन्तर्भूत नहीं हो सकता । इसीलिये सूत्रकार ने संशय तथा निर्णय से इसका पृथक् कथन किया है ।
1. अनवधारणत्वाविशेषादहा नध्यवसाययोर्नी संशयादर्थान्तरभावः । न्यायसार, पू. २.
2 न्यायभूषण, पृ ११.
3 तुरंगमाणां गमने योग्यदेशावमर्शतः ।
शैथिल्यात् स्थाणुकोटिर्हि नैव संभावनास्पदम् ॥ न्यायभूषण, पृ. २२.
4. बाधकप्रमणात् कोटयन्तराशंकायां निवृत्तायाम् ।
न्यायभूषण, पृ. २०.
5. विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः । न्यायसूत्र, ११११४१.
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