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________________ न्यायसार है।' उपलब्धि तथा अनुपलब्धि से जन्य सम्देहय समानधर्मजन्य संशय में अन्त. भूत है । रहस्य यही है कि उपलब्धि-अनुपलब्धि का समानधर्म से भेद न होने पर सूत्रकार ने 'समानाने कधर्मोपपत्तेविप्रतिपत्तेरुपलभ्यनुपलब्ध्यव्यवरथातश्च.............' इस सूत्र में प्रयोजनवशात् उपलब्धि का पृथक् कथन किया है । सूत्रकार का अनुसरण करते हुए भासर्वज्ञ ने भो इनका प्रयोजनवशात पृथक् कथन किया है और वह प्रयोजन परपक्ष का प्रतिक्षेप है, जिसका निरूपण पहिले किया जा चुका है। उपलब्धि तथा अनुपलब्धि की अव्यवस्था को संशयसामान्य में कारण मानना भासर्वज्ञ की अपनी विशेषता है, जिसका उल्लेख प्राचीन भाष्यकार, वार्तिककार आदि ने नहीं किया है तथा उपलब्धि व अनुपलब्ध का समान धर्म से पृथक् कथन क प्रयोजन परपक्षप्रतक्षेप भी इनकी अपनो विशेषता है। ऊह का संशय में अन्तर्भाव 'सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्' इस प्रमाण सामान्य के लक्षण में सम्यक् पद का व्यावर्त्य अह भी है । अतः व्यावय॑त्वेन प्रसक्त होने से स्वरूपज्ञानार्थ ऊह का निरूपण किया जा रहा है। ऊह तर्क का अपर पर्याय है, जैसा कि तर्क के 'अविज्ञाततत्त्वेऽथै कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तकं.' इस सौत्र लक्षण से ज्ञात होता है । नैयायिकों ने इस तर्क को प्रमाण का भेद माना है। न्यायसार में भासर्वज्ञ ने ऊह का 'बाह्यालीप्रदेशे पुरुषेणानेन भवितव्यमित्यूहः' यह लक्षण किया है । जयन्त ने भी ऊह का यही लक्षण किया है। संभवत भासर्वज्ञ ने उसी से प्रभावित होकर उसी लक्षण को अपना लिया है । उपर्युक्त ऊहलक्षण का स्पष्टीकरण करते हुए भासर्वज्ञ ने 'न्याय भूषण' में कहा है कि संशय और निर्णय के मध्यकाल में होने वाली 'भवितव्यम' इत्याकारक प्रतीति ऊह है। यह ऊह अनवधारणात्मक ज्ञान होने से संशय में अन्तर्पत है । 'सम्यगनुभवसाधन प्रमाणम्' इस प्रमाणलक्षण में 'सम्यक्' पद का उपादान संशय और विपर्यय के निराकरण के लिये है, यह कहा है, न कि ऊह तथा अनध्यवसाय की निवृत्ति के लिये भी, क्योंकि वाह्याली प्रदेश में इस पुरुष को होना चाहिये' इत्याकारक ऊह तथा इस वृक्ष का क्या नाम है' इत्याकारक अनध्यवसाय भी अनिश्चयात्मक होने से 'अनवधारणज्ञानं संशयः' इस संशय-लक्षण 1. तत्र समानधर्मोपत्तोरनेकधर्मोपत्तोविप्रतिपत्तोश्च त्रिविध एव संशय इतरपदविशेषणाद् भवतीति सूत्राथ: ।--न्यायवार्तिक, 11 (२३. . 2. न्यायसूत्र, १४०. 3 न्यायसार, पृ. २. 4. यथा बायकेलिप्रदेसादाबूयत्वविशिष्टधर्मिदर्शनात पुरुषेणानेन भवितव्यमिति प्रत्ययः । -न्यायमंजरी, एत्तर भाग, पृ. १४५. 5. ऋश्वायमूहः? संशयनिणयान्तरालमावी भवितव्यात्मकः प्रत्यक्षः ।-न्यायभूषण, पृ २०, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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