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________________ प्रमाणसामान्यलक्षण जिज्ञासा का जनन ही तर्क द्वारा प्रमार्णो का अनुग्रह बतलाया है। किन्तु भासर्वज्ञ ने वादादि में वादी, प्रतिवादी की प्रवृत्ति को तर्क को प्रयोजन मान है। तात्पर्य यह है कि कतिपय दार्शनिकों का कथन है कि नैयायिक की वादादि में प्रवृत्ति उचित नहीं है, क्योंकि विचारक की निश्चय के बिना प्रवृत्ति नहीं हो सकती और इस साधन अथवा दूषण से मुझे प्रतिवादी को पराजित करना है. ऐसा निश्चय वादी को वादप्रवृत्ति से पूर्व नहीं होता, क्योंकि दूसरे के अभिप्राय को जानना अत्यन्त दुष्कर है । परीक्षित प्रज्ञा वाले पुरुष में भी कदाचित् उपाध्याय आदि द्वारा समझाये जाने पर अज्ञान या विरुद्ध ज्ञान देखा जाता है, यह वस्तुस्थिति है । अतः निश्चय के बिना वादी, प्रतिवादी की वादादि में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। इस आशंका का परिहार करने के लिये भासर्वज्ञ ने वादादि में प्रवृत्ति के लिये तर्क की उपयोगिता मानी है । अर्थात् जिनमें जयपराजय-हेतुता प्रमाण से निश्चित हो अथवा तर्क से सुसंभावित (अनुगृहीत) हो, उन साधनों और दूषणों का नैयायिक को वादादि में प्रयोग करना चाहिए। उन्हीं से विजयसिद्धि और पराजयपरिहार संभव होते हैं। अर्थात् वादी तथा प्रतिवादी स्वपक्षसिद्धि के लिये तथा परपक्षखण्डन के लिये जिन साधनों और दूषणों का प्रयोग करना चाहता है, वे यद्यपि प्रमाण द्वारा निश्चित नहीं हैं, तथापि तर्क द्वारा कारणोपपत्ति से संभावित हैं, तो उनसे भी स्वविजय तथा परपराजय संभावित है। इस प्रकार तर्क वादादिप्रवृत्ति में कारण है । इसीलिये तर्क का पृथक् कथन किया है। इसी तथ्य का अपरार्क ने भी प्रतिपादन किया है । अनध्यवसाय का संशय में अन्तर्भाव वैशेषिक संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, स्वप्नभेद से चार प्रकार की अधिया मानते हैं। उन्होंने अनध्यवसाय को संशय से पृथक् माना है। किसी वृक्ष को देखने पर वृक्षसामान्य के व्याप्य आम्रपनसादि विशेष संज्ञाओं का स्मरण कर 'इस वृक्ष का क्या नाम है', इत्याकारक ज्ञान अनध्यवसाय कहलाता है, क्योंकि उसमें आम्रादि मंज्ञाविशेष का निश्चय नहीं है। इसे संशय में अन्तभूत नहीं 1. अनियतजिज्ञासाविच्छेदेन नियतं जिज्ञासाजननमनुग्रहः । सैव संभावनेत्युच्यते । -किरणापली, पृ. १७१. 2. जयपराजयहेतुत्वेन प्रमाणनिश्चितौ वा साधनोपालम्भी तर्कविषयीकृतौ वा वादादिषु नगायिके. नाभिधातन्यो ।-न्यायभूषण, पृ. २२. 3. वयं तु प्रतिपद्यामहे-त्रादादिप्रवृत्ति-विशेषणार्थः तक: पृथगुपदिष्टः।-न्यायभूषण, पृ. २१. 4. न्यायमुकावली, प्रथम भाग, पृ. २३. 5. तत्राविधा चतुर्विधा संशयविपर्ययानध्यवसायस्वप्नलक्षणा-प्र.पा.मा.. पृ. १३७, भान्या-५ नामि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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