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अनुमान प्रमाण
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विरुद्वाव्यभिचारी का उदाहरण दिया है । धर्मकीर्ति ने विरुद्धाव्यभिचारी को प्रमाणसिद्ध न होने से असम्भव माना है ।' न्यायमंजरीकार जयन्तभट्ट ने विरुद्धाव्यभिचारी अनेकान्तिक का भेद है, इसका निराकरण किया है । विरुद्धाव्यभिचारी हो चाहे कथंचित् संशय का जनक हो, किन्तु संशयजनकत्व अनैकान्तिक का लक्षण नहीं, अपितु पक्षद्धवृत्तित्व है और पक्षद्धयवृत्तिता विरुद्वाव्यभिचारी में नहीं है, अतः उसे अनैकान्तिक का भेद नहीं माना जा सकता । संशयजनकत्व को अनैकान्तिक का लक्षण मानने पर इन्द्रिय के भी 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इत्याकारक संशय या जनक होने से उसमें लक्षण को अतिप्रसक्ति होगी | 2
विरुद्धाव्यभिचारी की हेत्वाभासत्वाशंका
यद्यपि विरुद्राव्यभिचारी को हेत्वाभास नहीं मानना चाहिये, क्योंकि यदि एक हो व्यक्ति इन दो पृथक्-पृथक् अनुमानों का प्रयोग करता है, तो एक ही धर्मी में दो विरुद्ध धर्मो का प्रतिपादन करने के कारण वह उन्मत्त कहलायेगा । यदि यह कहा जाय कि दो वादी एक साथ उपर्युक्त दोनों अनुमानों का प्रयोग करते हैं, एक वादी नहीं, तो एक साथ प्रयोग करने के कारण इनसे अर्थप्रतिपत्ति नहीं होगी । यदि यह कहा जाय कि दो वादी ही पृथक्-पृथक् अनुमानों का प्रयोग करते हैं, वह भी एक साथ नहीं, क्रमशः करते हैं, अतः उपर्युक्त दोषों की आशंका नहीं हो में सकती । तथापि दूसरे अनुमान का प्रयोग करने वाले को प्रथम अनुमान दुष्टत्वज्ञान है अथवा अदुष्टत्वज्ञान ? यदि दुष्टत्वज्ञान है, तो उसे अव्यभिचारी नहीं कहा जा सकता और अदुष्टत्वज्ञान है, तो प्रथम अनुमान के अदुष्ट होने से उससे सिद्ध साध्य के विषय में द्वितीय अनुमान का उत्थान नहीं हो सकता । अतः विरुद्धाव्यभिचारी की हेत्वाभासता नहीं बन सकती ।
शङ्कानिरास
इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि जिस व्यक्ति को दोनों अनुमानों में किसी एक पक्ष के साधक विशेष धर्म का अभिमान न होने से सन्देह है और किसी एक पक्ष का निश्चय नहीं है, ऐसे व्यक्ति के प्रति दोनों अनुमान अव्यभिचारी हैं और परस्पर विरुद्ध भी हैं। ऐसे व्यक्ति की अपेक्षा से यह हेत्वाभास है । जैसे, अन्यतरासिद्ध एक के मत में असिद्ध होते से उसी की अपेक्षा से 1. विरुद्धाव्यभिचार्यपि संशयहेतुरुक्तः । स इह कस्मान्नोक: १ (न्यायबिन्दु, ३।११० ) सत्यम् | उक्तं आचार्येण । मया त्विह नोक्तः कस्मादित्याह - 'अनुमानविषयेऽसम्भवात् । ( न्यायबिन्दु, (३।१११ ) - धर्मोत्तर प्रदीप, पृ. २२४-२२५.
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2. विरुद्धान्यभिचारिणो वा यथा तथा संशयहेतुतामधिरोप्य कथ्यतामनेकान्तिकता न तु संशय. जनकत्वं तत् ( अनेकान्तिक) - लक्षणम्, इन्द्रियादेरपि तज्जनकत्वेन तथाभावप्रसक्तेरपि तु पक्षद्वय वृत्तित्वमनेकान्तिकलक्षणम् । असाधारणविरुद्धाव्यभिचारिणोः कथञ्चित् संशयहेतुत्वेऽपि पक्षयवृत्त्यभावानाने कान्तिकवर्गेऽन्तर्भावः । -न्यायमंजरी, उत्तरभाग, पृ. १५६.
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