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________________ १२८ न्यायसार हेत्वाभास है. दूसरे की अपेक्षा से नहीं । दुसरे अनुमान का प्रयोग करने वाले प्रतिवादी को वादी द्वारा प्रयुक्त प्रथम अनुमान में दुष्टत्वज्ञान या अदष्टत्वज्ञान है, इस विकल्प द्वारा इस हेत्वाभास के निराकरण का प्रयास निरर्थक है. क्योंकि माध्य. सिद्धि के लिये प्रयुक्त प्रथम अनुमान के बाद प्रतिवादी जो द्वितीय अनुमान का प्रयोग करता है, वह प्रथम हेतु में अविशेषताप्रदर्शनार्थ है. प्रथम हेतु की दुष्टता बतलाने के लिये नहीं । तात्पर्य यही है कि वादी ने शब्न में नित्यत्व को सिद्ध करने के लिये अमूर्तद्रव्यत्वरूप हेतु को प्रयोग किया। इसके बाद प्रतिवादी ने अनित्यत्वसाधक 'अस्मदादिबाइयेन्द्रि ग्राह्यत्व रूप' दूसरे हेतु का प्रयोग किया। वह पूर्व हेतु के दुष्टत्व का बोधन करने के लिये नहीं, अपितु जैसे प्रथम हेतु 'अमृतदव्य' शब्द में नित्यत्व सिद्ध करता है, तो दूसरा 'अस्ममादिबाहयेन्द्रिय ग्राह्यत्व' हेतु उसमें अनित्यत्व सिद्ध कर सकता है। अतः शब्द में नित्यत्व व अनित्यत्व का निश्चय नहीं हो सकता। इस प्रकार दोनों ही हेतओं में से किमी भी व्यभिचारिता का ज्ञान नहीं है । अतः अव्यभिचारी हैं और दोनों हेतु परस्पर विरुद्ध भी हैं। अतः इनकी विरुद्धाव्यभिचारिता उपपत्र हो जाती हैं । दोनों हेतुओं में अव्यभिचारिता प्रतिपत्ता के अभिपाय से है कि उसे किपी भी हेतु में व्यभिचारिता प्रतिपत्ता का ज्ञान नहीं है। वस्तुतः आकाशसाधक अनुमान के द्वारा ही आकाश में नित्यत्व का निश्चय है. अतः दोनों हेतुओं में अव्यभिचारिता नहीं है, केवल नित्यत्वसाधक हेतु में ही है। भासर्वज्ञ ने उपर्युक्त रीति से विरुद्धाव्यभिचारी की हेत्वाभासता सिद्ध की है। यद्यपि न्यायमंजरीकार जयन्त भट्ट ने विरुद्धाव्यभिचारी के हेत्वाभासत्व का प्रत्याख्यान किया है। उनका अभिप्राय यह है कि 'प्रत्यक्षो वायुः स्पर्शवत्त्वाद् घटवत', 'अप्रत्यक्षो वायुररूपत्वादाकाशवत्' यह विरुद्वाव्यभिचारी का उदाहरण है, क्योंकि यहां एक ही वायुरूप धर्मी में प्रत्यक्षत्व या अप्रत्यक्षत्व के साधक स्पर्शवत्व व अरूपत्व इन दो विरुद्ध धर्मो का संनिपात है। किन्तु वायु में जब स्पर्शन प्रत्यक्ष के द्वारा प्रत्यक्षत्व सिद्ध है, तब उसमें अनुमान के द्वारा प्रत्यक्षत्व या अप्रत्यझत्व को सिद्धि सर्वथा असंगत है । तथा इन दोनों में एक हेतु अवश्य ही अप्रयोजक है, क्योंकि वस्तु में द्वैरूप्य संभव नहीं और हेतुओं से वायु में द्वैरूप्य की सिद्धि जी जा रही है । अपि च, यदि वादी ने किसी वस्तु को सिद्ध करने के लिये हेतु का प्रयोग किया है, तो प्रतिवादी को उस हेतु के गुण या दोष पर विचार करना चाहिये, न कि विरुद्ध हेतु के उपन्यास द्वारा उसमें संशयोत्पादन या अविशेषतो का उत्पादन । अतः साध्यसाधक दो विरुद्ध हेतओं का समावेश संभव नहीं. क्योंकि उन दोनों में से एक अवश्य व्यभिचारी है, अतः दोनों हेतुओं का एकत्र समावेश तथा दोनों की अव्यभिचारिता के असंभव से विरुद्धाव्यभिचारी की हेत्वाभासता संभव नहीं । तथापि इस तरह विरुद्भाव्यभिचारी की हेत्वाभासता का निराकरण करने 1. न्यायभूषण, पृ. ३२. 2. न्यायमंजरी. उत्तर भाग, पृ. १५६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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