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________________ न्यायसार १५४ उदाहरण भी उसके विशेष लक्षण में द्रष्टव्य है, क्योंकि छलविशेष के उदाहरण से अन्य छलसामान्य के लक्षण का उदाहरण नहीं होता । लक्षणत्रैविध्य के कारण छल तीन प्रकार का बतलाया गया है - 'तत् त्रिविधं वाक्छलं सामान्यछलमुपचारच्छलं चेत | '1 वाक्छल किसी अर्थ को बतलाने के लिये जहाँ अनेकार्थवाचक पद या वाक्य का प्रयोग किया जाता है, उसमें वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना कर वक्ता के वचन को दूषित ठहराना वाक्छल कहलाता है । यद्यपि तीनों ही छलों में वचन के कारण होने से वाक्छलता की आपत्ति आती है, तथापि अन्य छल्लों में सामान्यादि निमित्त प्रधान है और इसमें अनेकार्थाभिधायी पद या वाक्यरूप वचन ही प्रधान कारण है, अतः इसे वाक्चल कहा जाता है, अन्य को नहीं । जैसेकिसी ने 'नवकम्बलोऽयं माणवकः इस वाक्य का प्रयोग किया। यहां वक्ता का अभिप्राय नवकम्बलपद से 'नवीन कम्बल वाला' है, किन्तु 'नव' शब्द अनेकार्थाभिधायी है । अतः प्रतिवादी वक्तो के अभिप्रेत नवीन अर्थ से भिन्न नौ संख्या अर्थ करके पास नौ कम्बल नहीं, इस प्रकार वक्ता के वचन को निरस्त करता है या उसमें दोष देता है । यह वाक्छल है । , यहां प्रतिवादी अप्रतिपत्तिलक्षण निग्रहस्थान से ग्रस्त है, क्योंकि 'कुतोऽस्य नवकम्बला: ' ऐसा कहने वाले प्रतिवादी से यह प्रश्न किया जा सकता है कि उसने वक्ता के अर्थ को जानकर 'कुतोऽस्य नवकम्बलाः' यह दूषण दिया है अथवा बिना जाने । यदि जानकर दिया है, तो प्रकरणादि की सहायता के बिना सामान्य शब्द अर्थविशेष का ज्ञान नहीं करा सकता । अतः अर्थविशेष के विषय में वक्ता से ही पूछना चाहिये था कि उसका क्या अभिप्राय है । उसके अभिप्राय को जानकर उसका स्वीकार या निराकरण करना चाहिये, न कि स्वेच्छा से । वस्तु के प्रत्यक्ष होने पर जहां शब्द प्रयोग किया जाता है, वहां उस शब्द के अर्थ का नियामक वस्तुदर्शन ही है । जैसे- 'श्वेतो धावति' यह कहने पर कोई श्वेत वस्तु नहीं' दीख रही है, अपितु कुत्ता दौड़ता हुआ दीख रहा है, तो वहां उस वाक्य का अर्थ कुत्ता दौड़ रहा है' यह होगा । इसी प्रकार नवीन कम्बल के दिखाई देने पर वक्ता द्वारा प्रयुक्त 'नवकम्बलोऽयं माणवक: का अर्थ - ' इस बटु के पास नवीन कम्बल हैं ' यह होगा | उसको न समझकर उसमें दोषोद्भावन करना अप्रतिपत्तिनामक निग्रहस्थान है । यदि उसने 'नौ कम्बल वाला यह अर्थ समझा है, तो विरुद्धार्थप्रतिपत्तिरूप विप्रतिपत्तिनामक निग्रहस्थान है। सूत्र में 'अर्थ' पद का ग्रहण इसलिये किया गया है कि प्रतिवादी स्वरूपतः वचन का प्रतिषेध नहीं कर रहा है, अपितु अर्थ के प्रतिषेध से उसका प्रतिषेध कर रहा है । 6 1. न्यायसूत्र, १/२११३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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