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कथानिरूपण तथा छल...
सामान्यछल सामान्यछल का लक्षण सूत्रकार ने 'सम्भवतोऽर्थस्यातिसामान्ययोगादसद्भतार्थकल्पना सामान्यच्छलम्'1 किया है । भासर्वज्ञ ने इसकी व्याख्या यह की है कि ब्राह्मण में चतुर्वेदाभिज्ञत्वादि धर्म बन सकता है, यही सत्र में संभवत्' शब्द से कहा गया है। इस धर्म से रहित व्रात्यादि में 'ब्राह्मण' शब्द का प्रयोग केवल ब्राह्मणत्व को लेकर होता है, किन्तु ब्राह्मणत्वरूप अतिसामान्य धर्म के सम्बन्ध से व्रात्यादि में भी ब्राह्मण शब्द के संभावित चतुर्वेदाभिज्ञत्वादि अर्थ की कल्पना कर जो वक्ता के वचन का विघात किया जाता है, उसे सामान्य छल कहते हैं । क्योंकि यहां अर्थान्तर को कल्पना ब्राह्मणत्वरूप सामान्य धर्म के द्वारा की गई है, अतः इसे सामान्य छल कहते हैं । जैसे- यह ब्राह्मण चतुर्वेदाभिज्ञ है, यह किसी के कहने पर न्यायवादी कहता है कि इसमें क्या आश्चर्य को बात है, ब्राह्मण में चतुर्वेदाभिज्ञत्व बन सकता है। इस पर कोई छलवादो ब्राह्मणत्व सामान्य धर्म को चतुर्वेदाभिज्ञत्व का लिंग मानकर यदि कहता है कि तुम्हारा कहना उचित नहीं है, क्योंकि ब्राह्मण तो व्रात्य भी होता है, किन्तु वह चतुर्वेदाभिज्ञ नहीं । अतः तुम्हारा वचन अनैकान्तिक है।
यहां भी वाक्छल की तरह प्रतिवक्ता निगृहीत है, क्योंकि उसने वक्ता के अभिप्राय को समझकर वक्ता के वचन का विधात किया है अथवा बिना समझे । यदि बिना समज्ञ किया है, तो अप्रतिपत्तिरूप निग्रहस्थान है । यदि समज्ञकर किया है, तो उसके यथार्थ अभिप्राय का अववोध न होने से विप्रतिपत्तिरूप निग्रहस्थान है, क्योंकि वादी ने ब्राह्मणत्व को चतुर्वेदाभिज्ञत्व में कारण नहीं बतलाया है जिससे कि व्रात्य में साध्यव्यभिचारोद्भावना की जाय और न ब्राह्मणत्व को वेदाभिज्ञत्व का उत्पादक ही बतलाया है। किन्तु जहां ब्राह्मणत्व होता है, वहां चतुर्वेदाभिज्ञत्व भी हो सकता है क्योंकि लोक में बहुधा ऐसा देखा जाता है। यदि ब्राह्मण होने पर भी किसी कारणवैगुण्य से उसमें वेदज्ञता नहीं है, तो वह उस धर्म के अयोग्य नहीं है। जैसे-जहां अच्छा खेत होता है, वहां अच्छा धान उपजता है। यहां सुक्षेत्रत्व शालिसम्पत्ति का लिंग नहीं है, किन्तु सुक्षेत्र में शालिसम्पत्ति की योग्यता है, इतना ही अभिप्राय है। सुक्षेत्र होने पर भी वृक्षादि कारणों के अभाव से शालिसम्पत्ति नहीं हो सकती ।
उपचारच्छल वक्ता द्वारा गोण शब्द का प्रयोग करने पर मुख्यार्थकल्पना के द्वारा उसका प्रतिषेध उपचारच्छल कहलाता है। सूत्रकार ने 'धर्माविकल्पनिदेशेऽर्थसदभाव प्रतिषेध उपचारच्छलम् --यह लक्षण किया है। जैसे, वादी ने मंचस्थ पुरुषों के अभिप्राय से लाक्षणिक मं व शब्द का प्रयोग 'मंचाः क्रोशन्ति' इस रूप से किया।
1. न्यायसूत्र, ।।२।१३ 2.
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