________________
कथानिरूपण तथा छल...
१७५ अनित्यत्व का प्रतिषेध करता है। अतः इसे कार्यसम कहा गया है। इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने प्रयत्नकार्यानेकत्वात् कार्यसमः'' यह कार्यसम का लक्षण किया है।
। सत्रकार ने इस दोष का परिहार करते हुए कहा है-'कार्यान्यत्वे प्रयत्ना. हेतुत्वमनुपलब्धिकारणोपपत्त.' । अर्थात् यदि विद्यमान शब्द की अनुपलब्धि के कारण व्यवधानादि की सत्ता होती, तो प्रयत्न हेतु शब्द में अभिव्यक्तिव्यति रक्त जन्यतारूप कार्यान्यत्व का साधक नहीं हो सकता था। किन्तु शब्द की अनुपलब्धि के कारण व्यवधानादि की सत्ता उपलब्ध नहीं है। अतः परिशेषात् प्रयत्न शब्द में आत्मलाभरूप जन्यता का असाधक नहीं, अपितु साधक हो है ।। ___अथवा शब्द में जन्मव्यतिरिक्त अभिव्यक्तिरूप कार्य के प्रति प्रयत्न कारण नहीं हो सकता, क्योंकि विद्यमान शब्द को अनुपलब्धि का कारण कोई दृष्टिगोचर नहीं होता । जहां विद्यमान वस्तु की अनुपलब्धि में कोई कारण होता है, वहीं प्रयत्न अभिव्यक्तिरूप कार्य का हेतु होता है, अन्यत्र नहीं ।
अपि च, प्रयत्नतारतम्य से शब्द में तीव्रमध्यमन्दादिभाव उपलब्ध होते हैं. वे प्रयत्न द्वारा शब्द की उत्पत्ति मानने पर हो उपपन्न हो सकते हैं। अभिव्यक्ति में प्रयत्नतारतम्य से कहीं तीव्रमन्दादिभाव दृष्टिगोचर नहीं होता । अतः प्रयत्न शब्द में उत्पत्तिरूप कार्य का ही हेतु है, न कि भिव्यक्तिरूप कार्य का । ____ उपर्युक्त जातिभेदों से भिन्न अन्य भी जातिभेद हैं । किन्तु उनके अनन्त होने से सब जातिभेदों का उदाहरण प्रदर्शित करना शक्य नहीं है, अतः उनका निरूपण नहीं किया जा रहा है। सूत्र में २४ ही जातिभेदों का उल्लेख दिमात्र-प्रदर्शनार्थ है, जातिभेदों की इयत्ता का प्रदर्शक नहीं । अतः जातिभेदों के आनन्त्य में' सविरोध उपास्थत नहीं होता । इसीलिये सूत्रकारने पूर्वपक्ष प्रदर्शित करते हुए अनन्यसम, सम्प्रतिपत्तिसम, जातियों का भी सत्रों में उल्लेख किया है।
निग्रहस्थाननिरूपण विप्रतिपत्ति अर्थात् विरुद्धज्ञान और अप्रतिपत्ति अर्थात् ज्ञानाभाव निग्रहस्थान कहलाता है, क्योंकि वादी द्वारा काथत का प्रतिवादी को तथा प्रतिवादी द्वारा कथित का वादी को जब विरुद्ध ज्ञान होता है या ज्ञान नहीं होता है, तब वह निग्रहस्थान से निगृहीत हो जाता है। इसीलिये सूत्रकार ने 'विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् . इस सत्र के द्वारा विप्रात्तपत्ति व अप्रतिपत्ति को निग्रहस्थान बतलाया है। विप्रपातपात्त व अप्रातपत्ति के भेदों के अनन्त होने से निग्रहस्थानों की गणना नहीं की जा 1. न्यायसूत्र, ५/११३७ 2. वही, ५।११३८ 3. न्यायभूषण, पृ. ३५६ 4. न्यायसूत्र, १११९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org