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________________ अनुमान प्रमाण १२१ क्योंकि भाष्यकार और बात्तिककार ने अपदिश्यमान संयोगव्यङ्ग्यत्व हेतु का एकदेश संयोग शब्दोपलब्धिकल का अतिक्रमण कर जाता है. यह कहकर काल का स्पष्ट निर्धारण कर दिया है । अन्तर इतना ही है कि भाष्यकार ने जो उदाहरण दिया है, वह परमत व्याख्यानुसार है, अतः उस उदाहरण के अनुसार उपलब्धिकाल का निर्देश किया है तथा वाचस्पति मिश्र ने कालाव्ययापदिष्ट को स्वमतव्याख्यानुसार अनुष्णत्व. साधक द्राव हेतु सध्यसंशयक ल का अतिक्रमण कर जाता है, इस कथन द्वारा साध्य संशय हाल को काल माना है। यह भेद केवल व्याख्याभेद पर निर्भर है। न्यायमंजरी में प्रकृत हेत्वाभाविवेचन का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि जयन्त ने कालात्ययापदिष्ट को भाष्यकार तथा वार्तिककारकृत परमतानुसारी व्याख्या के अनुसार प्रस्तत संयोगव्यंग्यत्व हेतु को असिद्ध हेत्वाभास की कोटि में निक्षिप्त कर कालात्ययापदिष्ट की परमतानुसारी व्याख्या का निराकरण किया है। तथा प्रत्यक्ष अथवा आगम से अबाधित पक्ष का परिग्रहकाल ही हेतु का प्रयोगकाल है. उस प्रयोगकाल का अतिक्रमण कर प्रत्यक्ष अथवा आगम से बाधित विषय में वर्तमान हेतु कालातीत कहलाता है, इस रूप से स्वमतानुसारिणी व्याख्या ही प्रस्तुत की है । जयन्त के इसके दो भेद माने हैं१. प्रत्यक्षविरुद्ध : 'उष्णो न तेजोऽवयत्री कृतकत्वात् घटवत् इस उदाहरण में सौरादि तेज का उष्णत्व स्पार्शन प्रत्यक्ष से सिद्ध है, अतः उसका अनुष्णत्वसाधक कृतकत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट अर्थात् बाधित हैं । २. आगमविरुद्ध : 'ब्राह्मणेन सुग पेया द्रवत्वात् क्षीरादिवत्' इस उदाहरण में द्रवत्व हेतु द्वारा साध्य ब्राह्मण सुरापान के "सुरा व मलमन्नानां पाप्मा च मलमुच्यते । तग्माद् ब्राह्मण राजन्यौ वैश्यश्च न सुरां पिबेत् ॥"" इस आगम प्रमाण द्वारा बाधित होने से बाधित है और साध्य के बाधित होने से उसका साधक हेतु भी बाधित कहलाता है। प्रस्तुत विवेचन से यह स्पष्ट है कि कालातीत हेत्वाभास का वाचस्पतिमिश्र तथा जयन्त भट्ट के द्वारा निरूपित स्वरूप न्यायमतानुसारी है। भाष्यकार द्वारा प्रस्तुत 1. अपरे आह-"सविशेषणस्य हेतोः युज्यमानस्य यस्य विशेषण कार्यकालमत्येति न तत्पर्यन्तभवतिष्ठते स कालात्ययापदिष्ट इति..." एतदपि न संगतमसिद्धत्वेनास्य हेत्वाभाषान्तरत्वा. नुपपत्तेः । -न्यायमंजरी उत्तरभाग, पृ० १६७. 2. न्यायमारपदपचिका से उधृत, पृ. १६. भान्या-१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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