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परवर्ती ग्रन्थकारों...
२४१ जिनमें भासर्वज्ञ तथा उनके मतानुयायी नैयायिकों को 'न्यायैकदेशी' संज्ञा से अभिहित किया गया है
'प्रत्यक्षमेकं चार्वाकाः कणादसुगतौ पुनः ॥७॥ अनुपानं च तच्चाथ सांख्याः शब्दं च ते अपि। .
न्यायैकदेशिनोप्येवमनुमानं च केचन ॥८॥ न्यायैकदेशी के रूप में भासर्वज्ञ और उनके अनुयायी नैयायिक ही अभिप्रेत हैं, जैसाकि तार्किकरक्षानिष्कण्टका व्याख्या के प्रणेता मल्लिनाथ सूरि के 'न्यायक. देशिनो भूषणीयाः -" इस कथन से स्पष्ट है ।
जैन दार्शनिक वादिराज सूरि ने 'न्यायविनिश्चयविवरण' में अनेक स्थलों पर भासर्वज्ञमत उद्धृत किया है। उनके द्वारा उद्धृत सभी अंश प्रत्यक्ष से सम्बन्धित हैं। ज्ञान अन्य वस्तुओं को प्रकाशित करता है, परन्तु वह स्वप्रकाशक नहीं होता । ज्ञान के स्वप्रकाशकत्व के विषय में संभावित आशंका का समाधान करते हुऐ भासज्ञ ने कहा है कि जिस प्रकार अग्नि स्वयं को नहीं जलाती, भिन्न पदार्थ को ज है, दात्र ( दौतरी) स्वयं को नहीं काटता, अपितु स्वभिन्न वस्तु को काटता है इसी प्रकार ज्ञान स्वयं को प्रकाशित न करने पर भी परप्रकाशकर रूप अपने स्वभाव से प्रच्युत नहीं होता । इस भामर्वज्ञमत को उद्धृत करते हुए वादिराज ने कहा है'यदुक्तं भासर्वज्ञेन-स्वात्मावबोधकत्वाभावे कथमसौ बोधस्वभाव इति चेत ?... स्वात्मदाहकत्वाभावेऽपि यथाऽग्निदहनस्वभावः, स्वात्मदारकत्वाभावेऽपि यथा दानादिकं दात्रादिस्वभावम् ।' ज्ञान स्वप्रकाशक न होने पर अन्य वस्तुओं का प्रकाशन नहीं कर सकता-इस आपत्ति का भासर्वज्ञ ने समाधान किया है कि ज्ञान धूमादि लिंग की तरह अपने विषय को प्रकाशित नहीं करता, जिससे कि ज्ञान के ज्ञात न होने पर उससे विषय का ज्ञान न हो, अपितु ग्राह्यत्वेन उसको व्यवहारयोग्य बना देता है । अतः ज्ञान के अज्ञात होने से विषय में अजाततापत्ति दोष नहीं । वादिराज ने भामर्वज्ञ के इस समाधान को उद्धत किया है-'उक्तं तेनैव-तदप्रसिद्धौ विषयस्याप्यप्रसिद्धरिति चेत् ?...किं कारणम् ? न हि तदुपलम्भ स्वविषयं लिंगवत् साधयति, येन तदप्रसिद्धौ विषयस्याप्यप्रसिद्धिः स्यात् । किं तहिं १ तद्गृहीति (?) रूपतयोत्पादमात्रेण तं विषयं व्यवहारयोग्यं करोति । तदप्रसिद्धावपि विषयः प्रसिद्ध एवेत्युच्यत इति ।
भासर्वज्ञ का कथन है कि ज्ञान के उत्पन्न होने पर ही वस्तु का प्रत्यक्ष संभव है, पहिले नहीं । वादिराज सूरि ने भासर्वज्ञ के इस कथन को उद्धृत किया है'यत पुनरत्र तस्यैव वचनम-उत्पादे हि सति पश्चादर्थदृष्टेः प्रत्यक्षत्वं युक्तम, न पूर्वमेव ।' प्रतिपक्ष की और से यह आपत्ति हो सकती है कि ज्ञान को स्वप्रकाश 1. ताकिरक्षा, पृ. ५६
3. न्यायविनिश्यविवरण, प्रथम भाग, पृ. २१५ 2. बही
4. वही न्याभा-३१
5. वही
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