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न्यायसार
न्यायभाष्यकार वात्स्यायनादि ने भी दुःख के आत्यन्तिक उच्छेद को ही मोक्ष स्वीकार किया है। 'तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः1 इस सूत्र की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने दुःख की अत्यन्त विमुक्ति को ही मोक्ष बतलाया है और यह दुःखात्यन्तविमोक्षरूप मोक्ष ही दुःखरूप भय, मृत्यु के अभाव से अभय, अजर, अमृत्युपद् आदि शब्दों से व्यवहृत किया गया है । भाष्यकार ने मोक्ष में नित्य सुख की अभिव्यक्ति मानने वालों के मत का निराकरण करते हुए कहा है कि मोक्ष में नित्य सुख की अभिव्यक्ति में कोई प्रमाण नहीं तथा उस सुख को नित्य मानने पर समारदशा में भी उस सुख की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। यदि कारणविशेष से उसको अभिव्यक्त होती है, तो कारणजन्य होने से वह अभिव्यक्ति अनित्य होने से विनाशी होगी, सर्वदा स्थिर नहीं रह सकेगी।
किन्तु क्रान्तिकारी नैयायिक भासर्वज्ञ का कथन है कि मोक्ष में दुःखात्यन्त - निवृत्ति की तरह सुख को निवृत्ति मानने पर दुःख-सुख दोनों का ज्ञान न होने से वह दशा मूविस्था के समान होगी और उसमें विवेकियों को प्रवृत्ति नहीं होगी। जैसे संसारावस्था में सुख सभी को इष्ट है और दुखनिवृत्ति भी अभीष्ट है, उसी प्रकार मोक्षदशा में भी दुख की निवृत्ति सभी को इष्ट हो सकती है, किन्तु सुख की निवृत्त नहीं । सुख के लिये हो सभी विवेकियों की प्रवृत्ति देखी जाती है। कण्टकादिजन्य दुःख का परिहार भी मानव सुखोपभाग के लिये ही करता है, क्योंकि कण्टकादिजन्य दुःख के होने पर निरवद्य (दुःखदोषरहित) सुख का उपभोग नहीं हो सकता । अत. वह उसके परिहार के लिये चेष्टा करता है।
मोक्ष में सुख की निवृत्ति मानने पर मोक्ष एकान्ततः पुरुषार्थ नहीं होगा क्योंकि जैसे दुःखानवृत्ति के कारण वह (मोक्ष) पुरुष द्वारा अभिलपणीय होगा, उसी प्रकार सखाभाव के कारण वह प्रेक्षावान् पुरुष के द्वारा अनभिलषणीय भी होगा । अतः मोक्ष में दुःखात्यत्तनिवृत्ति के साथ नित्य सुख को अभिव्यक्ति माननी उचित है। मोक्षदशा में नित्य सुख होता है, इसमें श्रुतिस्मृतिरूप आगम प्रमाण विद्यमान हैं ।
'सुखमात्यन्तिकं यद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयाद् दुष्प्रापमकृतात्मभिः ॥
1. न्यायसूत्र, १११२२ 2. न्यायभाष्य, ११२२ 3. It is with the radical Bhāsarvajña that a real change is wrought
with in the system. He specifically denies that the purely negative - description of liberation ean be correct,....... No one wants such a
state, says Bhasarwajna. - Karl H. Potter : The Encycopedia of
Indian Philosophies, Vol. II, p. 29. 4. न्यायसार से उधृत, पृ. १०
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