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न्यायसार
सर्वदा पद दिया गया है। यहां हेतु का 'सर्वदा तत्त्वज्ञानरहितस्व' विशेषण अंश सन्दिग्ध है, क्योंकि कौन जानता है कपिल सर्वदा तत्त्वज्ञानरहित है अथवा नही ?
ये बारह असिद्धभेद जब 'अनित्यः शब्दः चाक्षुषत्वात्' इत्यादि की तरह वादीप्रतिवादी दोनों की दृष्टि से असिद्ध हों, तब उभयासिद्ध कहलाते हैं । जब वादी-प्रतिवादी में से एक को दृष्टि से असिद्ध हों, तब अन्यतरासिद्ध कहलाते हैं ।
अन्यतरासिद्ध हेत्वाभास को न मानने वालों का खण्डन कतिपय दार्शनिक यह मानते हैं कि अन्यतरासिद्ध हेत्वाभास संभव नहीं है। उनका तर्क यह कि प्रतिवादी द्वारा हेतु में असिद्धि की उद्भावना करने पर यदि वादी उसके साधक प्रमाग को नहीं बतलाता है, तब प्रमाणाभाव के कारण उभयासिद्धि होगी । यदि प्रमाण प्रस्तुत करता है, तब प्रमाग के होने से उभयपक्ष में हेतु सिद्ध होगा। अन्यथा अन्यतरासिद्ध साध्य की कदापि सिद्धि न होने से उसके लिये प्रमाणोपन्यास व्यर्थ हो जायेगा । यदि प्रतिवादी के प्रति प्रमाण द्वारा सिद्ध न बतलाने तक असिद्ध माना जाय, तब असिद्ध गौण हो जायेगा, मुख्य नहीं ।
__ अपि च, हेत्वाभास निग्रहस्थान है और अन्यतरासिद्ध भी हेत्वाभास होने से निग्रहस्थान है । अन्यतरासिद्ध हेस्वाभासरूप निग्रहस्थान से वादी यदि एकबार निगृहीत हो जाता है, तो निगृहीत का बाद में अनिग्रह सभीचीन प्रतीत नहीं होता। निगृहीत होने के पश्चात् तो हेतु का समर्थन ही उचित नहीं, क्योंकि बाद तभी तक चलता है, जब तक कि दोनों में से एक निगृहीत न हो । निग्रहानन्तर वाद ही समाप्त हो जाता है, अतः पश्चात् हेतु-समर्थन का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।
समाधान यदि वादी सम्यक् हतुत्व को स्वीकार करता हुआ भी उसकी समर्थनपद्धति के विस्मरणादि अथवा प्राश्निकों को प्रतिबोधित करने में समर्थ नहीं होता है और असिद्धता को भी नहीं मानता, तब अन्यतरासिद्ध से ही उसका निग्रह होता है। स्वयं बादी द्वारा स्वीकृत न होने से तथा परमत में प्रसद्ध होने से ही प्रस्तुत अन्यतरा सिद्ध हेतु निग्रहस्थान कहलाता है । कहा भी है
'यो हि तावत्परासिद्धः स्त्रयं सिद्धोऽभिधीयते । । भवेत्तत्र प्रतीकारः स्वतोऽसिद्धे तु का क्रिया ।' योऽपि तावत् स्वयं सिद्धः परासिद्धोऽभिधीयते । भवेत्तत्र प्रतीकारः ततोऽसिद्धोऽभिधीयते ॥
1. न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, पृ. २२० से उदधृत । 2. न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. ११६ से उद्धृत ।
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