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________________ १३६ न्यायसार ४. आश्रयहीन : 'यन्नित्यं तन्मूर्तमपि न भवति यथा खपुष्पम् ।' यहाँ खपुष्प के सर्वथा असत् होने से वह न साधन का तथा न साध्य का ही आश्रय हो सकता है । कतिपय दार्शनिक वैध :-दृष्टान्त में धर्मों के अभाव को दोष रूप में स्वीकार नहीं करते। उनका निषेध करने के लिये यहाँ भी आश्रयहीन का कथन किया गया है । केरलान्वयी के निरूपण में कहा गया है कि जहां व्यतिरेक बल से सिाद्ध इष्ट हो, वहां वैधर्म्य. दृष्टान्त का आश्रय भी अवश्य मानना होगा । अन्यथा वचनमात्र से व्याप्तिसिद्धि मानने पर अतिप्रसंग की आपत्ति है । ५. अव्यावृत्ताभिधान : ___ 'यन्नित्यं भवति तन्मूर्तमपि न भवति आकाशवत ।' यहां मूर्तत्व और अनित्यत्व दोनों आकाश से व्यावृत्त है, किन्तु इस व्यावृत्ति की प्रतीति 'आकाशवत् ' शब्द से नहीं होती क्यों के आकाशवतू में तुल्यार्थ में वति प्रत्यय है। अत उससे विपक्ष आकाश के समान अमूर्त व नित्य हैं, इसी अर्थ की प्रतीति हो सकती है। मतत्व व अनित्यत्व की व्यात्ति उससे संभव नहीं तथा 'यद् यद्' इत्या कारक बीमा और 'सर्व' शब्द के बिना साध्य तथा साधन को समस्त विपक्षों से व्यावृत्ति को प्रतीति भी नहीं हो सकती। इसलिये यह उदाहरण व्यावृत्ति का अभिधायक न होने से अव्यावृत्ताभिधान दोष से प्रस्त है, अत एव अव्यावृत्ताभिधान नामक उदाहरणाभास है। ६. विपरीतव्यावृत्ताभिधान : __ 'यन्मूर्त न भवति तदनित्यमपि न भवति, यथाकाशम् ।' साध्य को व्यावृत्ति के अनुवाद से साधन की व्यावृत्ति वैधोदाहरण में बतलाई जाती है जिससे साध्य का साधनव्यापकत्व तथा साधनाभाव का साध्याभावव्यापकत्व प्रतीत हो सके । जैसे जहां वनि का अभाव है, वहां धूम का भी अभाव है । जैसे, जलहूद में । किन्तु जहां धूम नहीं होता है, वहां सर्वत्र अग्नि का अभाव होता है, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तप्त अयोगोल्क में धूम के न होने पर भी अग्नि की सत्ता विद्यमान है। परन्तु यहाँ साधनव्यावृत्ति के अनुवाद से साध्य की व्यावृत्ति बतलायी गयी है, अतः यह विपरीतव्याप्यभिधान होने से साधनांग नहीं है। ___उपर्युक्त ६ साधर्योदाहरणाभासों तथा ६ वैधोदाहरणाभासों का सोदाहरण निरूपण करने के पश्चात् भासर्वज्ञ ने दोनों वर्गो के अन्य चार-चार भेदों का प्रतिपादन किया है, किन्तु इन आठ भेदों का अन्य मत के रूप में उल्लेख किया है। 'भारतीय दर्शन में अनुमान' के लेखक डॉ. ब्रजनारायण शर्मा ने इस विषय में लिखा है "न्यायसार में साधम्यवैधर्म्य दृष्टान्तभासों के प्रथम चार भेदों में सन्दिग्ध पद जोड़कर अन्य चार चार भेदों का भी अन्य मतानुसार प्रतिपादन किया गया है। 1. अन्ये तु सन्देहद्वारेगापरानन्दादाहरणाभासान् वणेयन्ति ।-न्यायसार, पृ. २३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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