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________________ न्यायसार यह लक्षण किया है। सूत्र में 'उत्तरस्य अप्रतिपत्तिः' से केवल उत्तर का अपरिज्ञान ही अभिप्रेत नहीं है, किन्तु वचन का अनध्यवसाय अर्थात् निश्चित उत्तर की अप्रतीति भी विवक्षित है । अतः यदि कोई अनध्यवसायपूर्वक उत्तर दे भी देता है, तो भी अप्रतिमा से बहिर्भूत नहीं होता । अथवा उत्तर पद से प्रथम वादी का वचन भी संगृहीत है। यदि परिषत् वादी से यह पूछ बैठे कि तुम्हारा क्या पक्ष है ? क्या साधन है ? तुम हो पहिले अपने पक्ष और साधन को बतलाओ, तो वहां पक्षादि का कथन भी उत्तर है। यदि वादो पक्षादि के कथन में असमर्थ होकर चुप बैठ जाता है, वहां वादी अप्रतिमा निग्रहस्थान से ग्रस्त हो जाता है। अतः यह निग्रहस्थान बादी और प्रतिवादी दोनों के लिये है। (१७) विक्षेप किसी कार्य के व्यासंग से अर्थात् मुझे आवश्यक कार्य है, यह कह कर जो कथा का विच्छेद किया जाता है, वहां विक्षेप निग्रहस्थान होता है। किसी दुर्वर के मिथ्या व्यपदेश से कथा का विच्छेद भी इसमें संगृहीत है। जब कथा को स्वीकार कर लिया जाता है और सभ्य लोग एकत्र हो जाते हैं, उस समय यदि कोई कहे कि मुझे बहुत काम है, उस कार्य के समाप्त होने पर उत्तर दूंगा, तब यह दोष है। - इसका अर्थान्तर नामक निग्रहस्थान से यह भेद है कि अर्थान्तर में साधन का उपन्यास करने के लिये प्रवृत्त पुरुष अनुपयोगी वस्तुओं का उपन्यास करता है और विक्षेत्र में वादो या प्रतिवादी कथा को स्वीकार कर मैं बाद में साधन का उपन्यास करूंगा' यह कहता है । (१८) मतानुज्ञा स्वपक्ष के दोष को स्वीकार कर जो परपक्ष में दोष देता है, उसे मतानुज्ञा निग्रहस्थान कहते हैं, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है-'स्वपक्षे दोषाभ्युपगमात् परपक्षदोषो मतानुज्ञा' । अर्थात् जो अपने पक्ष के दोष का परिहार बिलकुल भी नहीं करता और दूसरे पक्ष में दोष देता है. वहां मतानुज्ञा निग्रहस्थान होता है। जैसेकिसो ने कहा - 'तुम चोर हो, तो उसका उत्तर न देकर - 'तुम भी चोर हो', यह कहता है । 'त्वमपि चोरः' - इस प्रकार कहता हुआ वह दूसरे द्वारा कथित चौरत्व की अनुज्ञा प्रदान कर देता है। परमत की अनुज्ञा प्रदान करने वाले व्यक्ति के प्रति ही यह मतानुज्ञा नामक निग्रहस्थान होता है, क्योंकि वह स्वदोष को स्वीकार कर लेता है। 1. न्यायसूत्र, ५।२।२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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