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आगमप्रमाणनिरूपण
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घटादि का नहीं। किन्तु प्रदीपादिव्यंजक सामग्री किसी के अभिप्राय से नियमित नहीं होनी, अत एव प्रतिनियत ग्य का ही व्यंजन नहीं करती, अपितु स्वसम्बद्ध सभी व्यंग्यों का करती है । अतः वर्णात्पत्ति पक्ष में वायुपंयोग उत्पादयिता पुरुष के अभिप्राय से नियमित होने के कारण प्रतिनियत ककारादि वर्ण का ही उत्पादन करता है, सभी वणों का एक काल में नहों। किन्तु वायु संयोग को शब्दव्यंजक मानने पर वह पुरुषाभिप्राय से अतः वाय संयोग को शब्द का व्यंजक न मानकर उत्पादक मानना ही उचित है । अत एव वर्णो का अनित्यत्वपक्ष ही संगत है, नित्यत्व नहीं और इसी लिये नित्यत्वेन शब्दों का प्रामाण्य न मानकर आप्तीक्तत्वेन ही प्रामाण्य मानना समुचित है।
इस प्रकार भासर्वज्ञ ने प्रत्यक्ष, अनुपान व आगम ये तीन ही प्रमाण माने हैं, शेष का इन्ही प्रमाणों में अन्तर्भाव माना है।
अर्थापत्ति का प्रमाणान्तरत्व-निराकरण अन्यथा अनुपपद्यमान अर्थ के द्वारा उसके उपपदक अर्थ की कल्पना अर्थापत्ति प्रमाण है । जैसे-दिन में भोजन न करने वाले देवदत्त की प्रत्यक्षतो ज्ञात पोनता द्वारा उसके उपपादक रात्रि-भोजन की कल्पना अर्थापत्ति है। पीन देवदत्त का रात्रिभोजन प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात नहीं है, क्योंकि उसके साथ इन्द्रियसंनिकर्ष नहीं। तथा रात्रिभोजन के बोधक किसी आप्तवाक्य के न होने से वह शब्द प्रमाण से भी ज्ञात नही है । सादृश्यज्ञान के द्वारा रात्रिभोजन का ज्ञान न होने से उपमान प्रमाण द्वारा उसका ज्ञान नहीं। पोनता के साथ रात्रिभोजन का अव्यभिचाररूप व्याप्तिसम्बन्ध न होने से अनुमान द्वारा भी उसका ज्ञान नहीं । इसी प्रकार जीवित पुरुष की गृहासत्ता बहिः सत्ता के बिना अनुपपन्न है। अतः जीवी पुरुष की गृहासत्ता के उपपादक बहिः सत्त्व की कल्पना भी अर्थापत्ति है । उपर्युक्त रोति से रात्रिभोजनादि का प्रमाणान्तर द्वारा ज्ञान न होने से उसके बोधक अर्थापत्ति प्रमाण को पृथक प्रमाण मानना चाहिये ।
भासर्वज्ञ का कथन है कि अनुमान प्रमाण से रात्रिभोजन को या बहः सत्त्व की अनुमति होने से अनुमान प्रमाण में इसका अन्तर्भाव उपपम्न है । अनुमान अविनाभावरूप व्याप्ति के बल से अर्थसिद्धि करता है । जैसे, धूम वन्यविनाभाव से पर्वतादि में वहनि को सिद्धि करता है, किन्तु यहां तो अन्यथानुपपत्ति के बल से रात्रि-भोजन या पुरुष की बहिः सत्ता सिद्ध होती है। अतः इसे अनुमान कैसे माना जा सकता है १ तथापि 'अन्यथा नोपपद्यते' इस उक्ति का तात्पर्य 'उसके होने पर ही होता है, इस अविनाभाव में ही है अतः दिन में भोजन न करने वाले पुरुष
भान्या-२५
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