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________________ १९४ न्यारसार को पीनता तथा रात्रिभोजन का अविनाभाव उपपन्न हो जाता है ।1 निम्नलिखित अनुमान भी इसी तथ्य को सिद्ध कर रहे हैं : 'देवदत्तो रात्रिभोजनवान् दिवाऽमुंजानत्वे सति पीनत्वात्' । 'चैत्रो बहिः सत्त्ववान्, जीवित्वे सति गृहासत्त्वात्' । गृहासत्व का सत्ता के साथ विरोध होने से वह सत्ता को कैसे सिद्ध करेगा, . यह आशंका भी अविचारितरमणीय है, क्यों के गृहासत का गृहसत्त्व से विरोध है न कि सत्तामात्र से । अतः गृहासत्त्व बहिः सत्ता का विरोधी नहीं है। जहां विस्फोटादि कार्य की अन्यथानुपपत्ति के द्वारा अग्नि में दाहकत्वशक्ति की कल्पना की जाती है, वहीं अनुमान हीं बन सकता, क्यों के कारण-साकल्य के प्रत्यक्षविषय न होने से कारणसाकल्य मैं और वहनिनिष्ठ अप्रतिबद्ध शक्ति में अन्वयसहचाररूप अन्वयव्याप्ति नहीं बन सकती । अतः तदर्थ अर्थापत्ति प्रमाण मानना पड़ेगा, यह कथन भी समीचीन नहीं, क्योंकि वहां भी व्यतिरेकव्याप्ति के संभव से केवलव्यतिरेकी अनुमान में अर्थापत्ति का अन्तर्भाव संभव है ।' अन्वयव्या ८त के अभाव से यदि केवलव्यतिरेकी को अनुमान न मानने पर व्यतिरेकव्याप्ति के अभाव से केवलान्वयी हेतु का भी अनुमानत्व नहीं होगा और उसे भी केवलव्यतिरेको की तरह पृथक् प्रमाण मानना पड़ेगा और इसी प्रकार प्रत्यक्षादि भेदों में भी स्वल्प वैधर्म्य के कारण प्रत्यक्ष न होने से प्रमाणान्तरता को आपत्ति होगी । अतः अन्वयव्याप्ति के वैधुर्य से केवलव्यातरेकी को अनुमान मानना उचित है और केवलव्यतिरेकी अनुमान में ही अर्थापत्ति का अन्तर्भाव है। संभव का प्रमाणान्तरत्वनिराकरण सहस्त्र संख्या में शत संख्या के सम्भव से सहस्र के द्वारा शतादि संख्या की प्रतिपत्ति संभव प्रमाण है । सहस्र में शतादि संख्या का ज्ञान प्रत्यक्षादि प्रमाण का विषय नहीं है, अत. इसे पृथक् प्रमाण मानना चा हैए, ऐसा कतिपय विचारक मानते हैं । किन्तु भासर्वज्ञ का कथन है कि सहस्र में शतादि संख्याप्रतिपत्ति अनुमान प्रमाण से संभव है । शता दे संख्या का सहस्र संख्या से अवनाभाव है, क्योंकि स्वल्प संख्या का समाहार ही अधिक संख्या है। स्वल्प संख्या के अभाव में अधिक संख्या की अनुपपत्ति है । अतः 'सहस्र शतादिसंख्याविनाभूतं सहस्रस्य स्वल्पशतादि. संस्थासमाहाररूपत्वात्, स्वल्पसंस्थाभावे प्रभूतसंस्थानुपपत्तेः' इत्ययाकारक अनुमान द्वारा ही सहन संख्या में शतादि सख्या का ज्ञान उत्पन्न होने से संभव के पृथक्प्रामाण्य की अपेक्षा नहीं। 1. न्यायसार, पृ. ३२-३३ 2. न्यायसार, पृ. ३३ 3. न्यायभूषण, पृ. ४३०-४३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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