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________________ १९६ न्यायसार का घटाभावादि के साथ विद्यमान है और न्यायमत में जैसे घटरूपादि के साथ इन्द्रिय का संयोग या समवाय संबंध न होकर संयुक्तसमवायादि सम्बन्ध है. जैसे ही भूतलनिष्ठ घटाभावादि के साथ भी इन्द्रिय का मंयुक्त-विशेषण विशेष्यभावादि सम्बन्ध विद्यमान है । 'चक्षुषा घटरूपं पश्यामि' की तरह 'चक्षुषा घटाभावं पश्यामि' प्रतीति भी समान है। संयोग-प्समवायादि से भिन्न विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध की अनुपत्ति है, यह मान्यता भी तर्कयुक्त नहीं है, क्योंकि 'भूतलं घटाभाववत्' इस विशिष्ट प्रतीति के बल से अभाव के साथ इन्द्रिय का संयोगादि रहित विशेषण विशेष्यभाव सम्बन्ध मानना हो होगा । जैसे-'गोमान्' इस विशिष्ट प्रतीति के बल से गोमान् पुरुषमात्र के साथ इन्द्रिय का संयोग सम्बन्ध होने से विप्रकृष्ट देशस्थित गाय के साथ इन्द्रियसम्बन्ध न होने पर भी उसके साथ संयोगादिरहित विशेषणविशेष्यभाव माना जाता है अन्यथा 'गोमान् इत्याकारक विशिष्ट प्रतीति अनुपपन्न हो जायेगी । अतः इन्द्रिय के साथ घटाभावादि का विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध होने से इन्द्रिय द्वारा ही भूतलादिवर्ती घटाभावादि का ज्ञान हो जाता है, उसके ज्ञान के लिये अनुपलब्धि अर्थात् उपलब्ध्यभाव को पृथक् प्रमाण मानने को आवश्यक्ता नहीं। ऐतिहय का प्रमाणान्तरत्वनिराकरण जनश्रुतिपरम्परागत 'इस क्ट में राज्ञ है' इत्याकारक ज्ञान के लिये कतिपय विद्वान 'इह वटें यज्ञः प्रतित्रसति' इस अनिर्दिष्टवक्तृक प्रवादपरम्परारूप ऐतिहय को प्रमाण मानते हैं । यह ऐतिय पृथक् प्रमाण है, क्योंकि वट में यक्षज्ञान इन्द्रियसम्बन्ध के अभाव से प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं है । किसी अव्यभिचारी लिंगासन के अभाव से अनुमान द्वारा तथा साहश्यज्ञान के अभाव से उपमान प्रमाण द्वारा व आप्तपुरुषवक्तृत्व के ज्ञान के अभाव से आप्तवाक्यरूप शब्द प्रमाण द्वारा भी उसका ज्ञान संभव नहीं । किन्तु भासर्वज्ञ नैयायिक मतानुसार यह कहते हैं कि 'इह वटे यज्ञः प्रतिवसति' यह किसी आप्त पुरुष का वाक्य हैं, तब तो आप्तवाक्य द्वारा वट में यक्षज्ञान होने से वह शब्द प्रमाण ही है और यदि वह वचन आप्तपुरुषोक्त नहीं है, तो उसे प्रमाण मानना ही असंगत है। परम्परागत जनश्रुति का भी कोई अज्ञात आप्त पुरुष मूल होता है, इस अभिप्राय से भासर्वज्ञ ने उसका आगम प्रमाण में अन्तर्भाव बतलाया है । चेष्टा का प्रमाणान्तरत्वनिराकरण शरीर व शरीरावयवों की प्रयत्नजनित क्रिया रूप चेष्टा का भी प्रमाण है, क्योंकि उसके द्वारा नाट्य व लोक में भिन्न पुरुषाभिप्रायों की प्रतीति होती है। 1. न्यायसार, पृ. ३३, ३४ . 2. न्यायसार, पृ. ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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