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छक्खंडागम हुए चार अघातिया कोंमेंसे आयुकर्मको छोड़कर शेष नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन कर्मोके सत्त्वकी प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जरा करते हुए संसारमें जीवन-पर्यंत विहार करते हैं और प्राणिमात्रको धर्मका उपदेश देते रहते हैं । इस गुणस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्तसे कम एक पूर्वकोटी वर्ष है।
१४ अयोगिकेवलीगुणस्थान- जब उपर्युक्त सयोगिकेवली जिनकी आयु अन्तर्मुहूर्तप्रमाण शेष रह जाती है, तब वे योग-निरोध करके अयोगि-केवली बनकर इस गुणस्थानमें प्रवेश . . . . . करते है। योगका अभाव हो जानेसे उनके करिवका सर्वथा अभाव हो जाता है और इसी कारण वे नवीन कर्म बन्धसे सर्वथा मुक्त हो जाते हैं, तथा सत्तास्थित सर्व कर्मोके क्षयके उन्मुख हैं। वे शीलके अठारह हजार भेदोंके स्वामी हो जाते हैं, चौरांसीलाख उत्तर गुणोंकी पूर्णता भी उनके हो जाती है और योगके अभावसे आत्म-प्रदेशोंके निष्कम्प हो जानेके कारण वे शैल . ( पर्वत ) के समान अचल, स्थिर, शान्त दशाको प्राप्त हो जाते हैं । इस गुणस्थानका काल लघु अन्तर्मुहूर्त मात्र है, अर्थात् अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पांच ह्रस्व स्वरोंके उच्चारण में जितना काल लगता है, उतना है | जब इस गुणस्थानका दो समय प्रमाण काल शेष रहता है, तब ये अयोगिकेवली जिन वेदनीयकर्मकी दोनों प्रकृतियों से अनुदयरूप कोई एक, देवगति, पांच शरीर, पांच संघात, पांच बन्धन, छह संस्थान, तीन अंगोपांग, छह संहनन, पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, आठ स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परवात, उच्छास, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, सुस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण और नीच गोत्र इन बहत्तर प्रकृतियोंका एक साथ क्षय करते हैं । तत्पश्चात् अन्तिम समयमें उदयको प्राप्त एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र और यदि तीर्थंकर प्रकृतिका सत्त्व है, तो वह इस प्रकार तेरह प्रकृतियोंका क्षय करके वर्तमान शरीरको छोडकर सर्व कर्मोंसे विप्रमुक्त होते हुए निर्वाणको प्राप्त होते हैं, अर्थात् सिद्ध परमात्मा बनकर सिद्धालयमें जा पहुंचते हैं और सदाके लिए संसारके आवागमन और परिभ्रमणसे मुक्त हो जाते हैं।
इन चौदह गुणस्थानोंके द्वारा संसारी आत्मा अपने ऊपर आच्छादित राग, द्वेष, मोहादि भावोंको दूर कर आत्म-विकास करके आमासे परमात्मा बन जाता है ।
मार्गणास्थान ___ मार्गणा शब्दका अर्थ अन्वेषण ( स्त्रोज ) करना होता है। अतएव जिन नारकादिरूप पर्यायोंके और ज्ञानादि धर्मविशेषोंके द्वारा जिन नारकादिरूप स्थानों में जीवोंका अन्वेषण किया जाता है, उन्हें मार्गणास्थान कहते हैं। ये मार्गणास्थान चौदह हैं- १ गति, २ इन्द्रिय,
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