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छवखंडागम
असंख्यात गुणित श्रेणीके क्रमसे कर्म-प्रदेशोंकी निर्जरा करनेको गुणश्रेणीनिर्जरा कहते हैं । यहांपर जिन अप्रशस्त प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है, उनकी सत्तामें स्थित कर्म-वर्गणाओंको उस समय बंधनेवाली अन्य प्रकृतियोंमें असंख्यात गुणितश्रेणीके रूपसे संक्रमण करनेको गुणसंक्रमण कहते हैं । विद्यमान कर्मोंकी स्थितियोंके सहस्रों कांडकोंके घातको स्थितिकांडकघात और उन्हीं कर्मोंके सहस्रों ही अनुभाग-काण्डकोंके घातको अनुभागकांडकघात कहते हैं। इस प्रकार इन चारों ही कार्योंको करते हुए वह अपूर्वकरणका काल समाप्त करता है। यद्यपि इस गुणस्थानमें भी जीव किसी भी कर्मका उपशम या क्षय नहीं करता है, तथापि वह उक्त चारों क्रिया-विशेषोंके द्वारा अपने कर्म भारको बहुत कुछ हलका कर देता है।
९ अनिवृत्तिकरणगुणस्थान- इस गुणरथानमें प्रवेश करनेवाले जीवके परिणामभी प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे बढ़ते रहते हैं और यहांपर भी अपूर्वकरणके समानही उक्त चारों कार्य होते हैं । इस प्रकार इस गुणस्थानके कालका बहुभाग व्यतीत होनेपर उपशम श्रेणीपर चढा हुआ जीव अप्रत्याख्यानादि बारह कषाय और नव नोकषाय इन इक्कीस मोह-प्रकृतियोंका अन्तरकरण करता है । इन प्रकृतियोंकी विवक्षित स्थलसे नीचे और ऊपरकी कितनीही स्थितियोंको छोड़कर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण मध्यवर्ती स्थितियोंके निषेकोंके द्रव्यको ऊपर और नीचेकी स्थितियोंके द्रव्यमें निक्षेपण करके वहांके निषेकोंके अभाव करनेको अन्तरकरण कहते हैं । अन्तरकरणके पश्चात् उपशामक जीव सर्वप्रथम नपुंसकवेदका उपशम करता है, तदनन्तर स्त्रीवेदका और उसके पश्चात् हास्यादि छह नोकषायोंका और पुरुषवेदका उपशम करता है । तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क
और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क इन आठों मध्यम कषायोंका उपशम करता है । इसके अनन्तर क्रमसे संज्वलन, क्रोध, मान, माया और बादर लोभका उपशम करके नववे गुणस्थानके कालको समाप्त करता है। किन्तु जो जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़कर इस गुणरथानमें आया है, वह नववे गुणस्थानके बहुभाग व्यतीत होनेपर सर्वप्रथम १ स्त्यानगृद्धि, २ निद्रानिद्रा, ३ प्रचलाप्रचला, ४ नरकगति, ५ नरकगत्यानुपूर्वी, ६ तिर्यग्गति, ७ तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, ८ एकेन्द्रियजाति, ९ द्वीन्द्रियजाति १० त्रीन्द्रियजाति, ११ चतुरिन्द्रियजाति, १२ आतप, १३ उद्योत, १४ स्थावर, १५ सूक्ष्म, और १६ साधारण इन सोलह प्रकृतियोंका क्षय करता है। तदनन्तर आठ मध्यम कषायोंका क्षय करता है। तदनन्तर चार संज्वलन और नव नोकषायोंका अन्तर करके सर्वप्रथम नपुंसकवेदका क्षय करता है, पुनः स्त्रीवेदका क्षय करता है और तत्पश्चात् छह नोकषायोंका और पुरुषवेदका क्षय करता है। इसके पश्चात् क्रमसे संज्वलन क्रोध, मान, माया और बादर लोभका क्षय करके . नववें गुणस्थानका काल समाप्त करता है।
१० सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान- इस गुणस्थानमें यतः सूक्ष्मसाम्पराय अर्थात सूक्ष्म लोभकषाय विद्यमान है, अतः इसे सूक्ष्मसाम्पराय कहते हैं । जो उपशमश्रेणीसे चढ़ता हुआ यहां आया हैं, वह एक अन्तर्मुहूर्त काल तक सूक्ष्म लोभका वेदन ( अनुभवन ) करके अन्तिम समयमें
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