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छक्खंडागम
उन्मीलन और निमीलन होता रहता है, उसी प्रकार इस गुणस्थानवर्ती साधुकी भी आत्मोन्मुखी और बहिर्मुखी प्रवृत्ति होती रहती है ।
७ अप्रमत्तसंयतगुणस्थान - ऊपर जिस आत्मोन्मुखी प्रवृत्तिका उल्लेख किया गया है उसमें वर्तमान साधुको अप्रमत्तसंयत कहते हैं । जब तक वह सकलसंयमी साधु आत्मस्वरूप के चिन्तनमें निरत ( तल्लीन ) रहता है, तब तक उसके सातवां गुणस्थान जानना चाहिये । यद्यपि इस गुणस्थानका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है, तथापि छठे गुणस्थानके कालसे सातवां गुणस्थानका काल स्थूल मानसे आधा जानना चाहिए । इसका कारण यह है कि आत्मस्वरूप के चितवन रूप परम समाधिकी दशा में कोई भी जीव अधिक कालतक नहीं रह सकता । कहनेका अभिप्राय यह है कि साधुकी प्रवृत्ति या चित्त-परिणतिमें हर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् परिवर्तन होता रहता है और वह छठे गुणस्थान से सातवेंमें और सातवेंसे छठे गुणस्थान में आता जाता रहता है और इस प्रकार परिवर्तनका यह क्रम उस मनुष्य के जीवनपर्यन्त चलता रहता है । यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि जो उपशम सम्यक्त्व के साथ सकलसंयम को प्राप्त होते हैं और उपशम सम्यक्त्वका काल समाप्त होने के साथ ही वेदक या क्षायिक सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त हो पाते हैं, वे साधु अन्तर्मुहूर्त कालतक संयमी रहकर उससे च्युत हो जाते हैं और नीचे के गुणस्थानोंमें चले जाते हैं ।
सकलसंयमके धारण करनेवाले सप्तम गुणस्थानवर्ती जीवोंमें कुछ विशिष्ट व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो आगे के गुणस्थानों में चढ़ने का प्रयास करते हैं । जो ऐसा प्रयास करते हैं, उन्हें सातिशय अप्रमत्तसंयत कहते हैं । वे जीव इसी गुणस्थान में रहते समय चारित्रमोहनीय कर्मके उपशम या क्षय के लिए अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप विशिष्ट परिणामों की प्राप्तिका प्रयत्न करते हैं । उनमें से अधःकरणरूप परिणामोंकी प्राप्ति तो सातवें ही गुणस्थानमें हो जाती है । किन्तु अपूर्वकरणरूप परिणामविशेषकी प्राप्ति आठवें गुणस्थान में और अनिवृत्तिकरणरूप परिणामविशेषकी प्राप्ति नवे गुणस्थान में होती है ।
१ अधःकरण परिणाम- जब जीव चारित्र मोहनीयके उपशम या क्षयके लिए उद्यत होता है, तब अन्तर्मुहूर्त काल तक उसके परिणाम यद्यपि उत्तरोत्तर विशुद्ध होते रहते हैं, तथापि उसके परिणामों की यदि तुलना उसके पीछे अधःकरण परिणामोंको मांडनेवाले जीवके साथ की जाय तो कदाचित् किसी जीवके परिणामोंके साथ सदृशता पाई जा सकती है। इसका कारण यह है कि इस जातिके परिणामोंके असंख्य भेद हैं । पहिला जीव मध्यम जातिकी जिस विशुद्धिके साथ चढ़ता हुआ तीसरे या चौथे समय में जिस जातिकी विशुद्धिको प्राप्त करता है, दूसरा जीव उतनीही त्रिशुद्धि के साथ पहलेही समय में चढ़ सकता है । अतः उस पहलेवाले जीवके परिणाम इस अधस्तन समयवर्ती जीवके परिणामोंके साथ समानता रखते हैं, अतः उन्हें अधःकरण परिणाम कहते हैं ।
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