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छक्खंडागम
उसके उदयकों वेदन (अनुभवन) करने से उसे वेदक सम्यग्दर्शन भी कहते हैं । इनमें जिस जिस जीवको क्षायिकसम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है, वह जीव कभी भी नीचे नहीं गिरता, अर्थात् मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता है, उसे जिनभाषित तत्त्वोंमें किसी प्रकारका सन्देह भी नहीं होता और न वह मिथ्यादृष्टियोंके अतिशयोंको देखकर आश्चर्यको ही प्राप्त होता है । औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव भी इसी प्रकारका है, किन्तु परिणामों के निमित्तसे उपशम सम्यक्त्वको छोड़कर मिथ्यात्व गुणस्थानमें जा पहुंचता है, कभी सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त करता है, कभी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमे भी जा पहुंचता है और कभी वेदकसम्यग्दर्शनको भी प्राप्त कर लेता है । जो क्षायोपशमिक या वेदक सम्यग्दृष्टि जीव है, वह शिथिल श्रद्धानी होता है । जैसे वृद्ध पुरुषके हाथकी लकड़ी भूमिमें स्थिर रहने पर भी ऊपरसे हिलती रहती है, उसी प्रकार वेदक सम्यग्दृष्टि जीवका श्रद्धान भी आत्माके ऊपर दृढ़ होने पर भी तत्त्वार्थ के विषय में शिथिल होता है । अतः कुहेतु और कुदृष्टान्तोंसे उसके सम्यक्त्वकी विराधना होने में देर नहीं लगती ।
इन तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंमेंसे उपशमसम्यक्त्वका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक अन्तर्मुहूर्त ही है । क्षायिकसम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल संसार-वासकी अपेक्षा कुछ कम दो पूर्व-कोटि वर्ष से अधिक तेत्तीस सागर है, तथा मोक्ष - निवासकी अपेक्षा अनन्तकाल है | वेदक सम्यक्त्वका जवन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल छयासठ सागर है । कहनेका भाव यह है कि कोई जीव यदि औपशमिक सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर चौथे गुणस्थान में आता है तो उसकी अपेक्षा उसका काल अन्तर्मुहूर्त ही है । और यदि क्षायिक या वेदक सम्यक्त्वके साथ चौथे गुणस्थान में रहता है तो ऊपर इन दोनोंका जो उत्कृष्ट काल बतलाये हैं, उतने काल तक वह जीव चौथे गुणस्थान में बना रहता है ।
५ देशसंयत गुणस्थान- सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके पश्चात् जब जीवके अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायोंका क्षयोपशम होता है, तब जीवके भाव श्रावक व्रतधारण करने के होते हैं और वह अपनी शक्तिके अनुसार श्रावककी ११ प्रतिमाओं ( कक्षाओं ) से यथा संभव प्रतिमाओंके व्रतोंको धारण करता है । इस गुणस्थानवाला जीव भीतर से सकलसंयम अर्थात् सम्पूर्ण चारित्र को धारण करने के भाव रखते हुए भी प्रत्याख्यानावरण कषायके तीव्र उदयसे उसे धारण नहीं कर पाता है, अतः यह स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहरूप पंच पापोंका यावज्जीवनके लिए त्याग करता है । दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डविरत इन तीन गुणों को भी धारण करता है । प्रतिदिन तीनों संध्याओं में कमसे कम दो घडी ( ४८ मिनिट ) . काल बैठकर सामायिक करता है, अर्थात प्राणिमात्र के साथ समताभावकी उपासना करता हुआ इष्ट-अनिष्ट पदार्थोंमें रागद्वेषका परित्याग करता है । प्रत्येक पक्षकी अष्टमी और चतुर्दशीको अन्न-जलका और व्यापारादि कार्योका परित्याग करके उपवास अंगीकार कर दिन-रात का सारा समय धर्म साधनमें व्यतीत करता है। खान-पान और दैनिक व्यवहारकी वस्तुओंमेंसे आवश्यकों को
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