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छक्खंडागम
प्रबल उदयके कारण अनादिकालसे भूला हुआ परिभ्रमण करता आ रहा है। मोहकर्मकी प्रबलतासे यह अपने स्वरूपको प्राप्त करनेका तो प्रयत्न नहीं करता, किन्तु संसारके पर पदार्थ जो अपने नहीं हैं, उनको प्राप्त करनेके लिए आकुल-व्याकुल रहता है । जीवका यही मिथ्या भाव या अन्यथा परिणमन मिथ्यात्व कहलाता है । यह मिथ्यात्व जिन जीवोंके पाया जाता है, उन्हें मिथ्यादृष्टि कहते हैं । मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्रवृत्ति सदा विषय कषायों में रहती है और उन्हें धर्म-अधर्मकी कुछ भी पहिचान नहीं होती है । संसारके बहुभाग प्राणी इसी मिथ्यात्व स्थानमें अवस्थित हैं। इस गुणस्थानका काल तीन प्रकारका है - १ अनादि-अनन्त, २ अनादि-सान्त और ३ सादि-सान्त जिन जीवोंके मिथ्यात्व भाव अनादि कालसे चला आरहा है और आगे अनन्त काल रहनेवाला है, अर्थात जिन्हें सच्ची यथार्थ दृष्टि न आज तक प्राप्त हुई है और न आगे कभी प्राप्त होनेवाली है, ऐसे अभव्य मिथ्यादृष्टियोंके मिथ्यात्वगुणस्थानका काल अनादि-अनन्त जानना चाहिए । जिन जीवोंके मिथ्यात्व अनादिकालसे तो चला आया है, किन्तु जो पुरुषार्थ करके उसे दूर कर और यथार्थ दृष्टि प्राप्त कर सम्यग्दृष्टि बन उपरके गुणस्थानोंमें चढ़नेवाले है उनका मिथ्यात्व यतः अन्त-सहित है, अतः उसका काल अनादि-सान्त कहलाता है । जिन जीवोंकी मिथ्यादृष्टि दूर होकर एक बार भी सच्ची दृष्टि प्राप्त हो गई है और ऊपर के गुणस्थानोंमें चढ़ चुके हैं । किन्तु कर्मोदयके वशसे पुन: मिथ्यात्वगुणस्थानमें आ गये हैं, उनके मिथ्यात्वका काल सादि-सान्त कहलाता है । अर्थात् उनके मिथ्यात्वकी आदि भी है और आगे चलकर नियमसे वह छूटनेवाला है अतः अन्त भी है । इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थानमें तीनों प्रकार के जीव पाये जाते हैं ।
२ सासादन गुणस्थान- जब यह जीव आत्म-स्वरूपको पाने के लिए पुरुषार्थ करता है और उस पुरुषार्थ के द्वारा उसे सच्ची दृष्टि प्राप्त हो जाती है तब वह पहले गुणस्थानसे एकदम चौथे गुणस्थानमें जा पहुंचता है। किन्तु उपशान्त हुई अनन्तानुबन्धी कषायके उदयमें आ जानेसे वह नीचे गिरता है और इस गिरती हुई दशामें ही जीवसे दूसरा गुणस्थान होता है । आसादन नाम सम्यग्दर्शनकी विराधनाका है, उससे सहित होने के कारण इस गुणस्थानका नाम सासादन पड़ा है । इस गुणस्थान का काल कमसे कम एक समय है और अधिक से अधिक छह आवली काल है । इससे अधिक समय तक कोई भी जीव इस गुणस्थानमें नहीं रह सकता है । इसके पश्चात् गिरकर वह नियमसे पहले गुणस्थानमें ही आ जाता है ।
३ मिश्र या सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान- चौथे गुणस्थानवाले जीवके सब सम्यक्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय कर्मका उदय आता है, तो वह जीव चौथे गुणस्थानसे गिरकर तीसरे मिश्र गुणस्थानमें आ जाता है । इस गुणस्थानमें जीवके परिणाम सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन दोनों प्रकारके भावोंसे मिले हुए होते हैं, इसी लिए इसका नाम मिश्र या सम्यग्मिथ्यात्व है। इस गुणस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त ही है। इस कालके समाप्त होनेपर यदि वह
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