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प्रस्तावना
पांचवां व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग
गति - आगति ( नववी चूलिका)
इस प्रकार जीवस्थान नामक प्रथम खण्डमें जो नौ चूलिकाएं दी हुई हैं, उनके उद्गम स्थान उपर्युक्त प्रकारसे जानना चाहिए ।
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उक्त सर्व त्रिवेचनसे पाठक दो निश्चयोंपर पहुंचेंगे - पहला यह कि द्वादशांग श्रुतका क्षेत्र कितना विशाल है । और दूसरा यह कि षट्खण्डागमका उस द्वादशांग श्रुतसे उद्गम होने के कारण भ. महावीरकी वाणीसे उसका सीधा सम्बन्ध है । इससे प्रस्तुत सिद्धान्त ग्रन्थकी महत्ता स्वयं सिद्ध है ।
पट्खण्डागमका विषय - परिचय
यह बात तो ऊपर किये गये विवेचनसेही स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रन्थका उद्गम किसी एक अनुयोगद्वारसे नही है; किन्तु महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौवीस अनुयोगद्वारोंमेंसे भिन्न भिन्न अनुयोगद्वार एवं उनके अवान्तर अधिकारोंसे पट्खण्डागमके विभिन्न अंगों की उत्पत्ति हुई है, अतः इसका नाम खण्ड-आगम पड़ा । और यतः इस आगमकें छह खण्ड हैं, अतः षट्खण्डागमके नामसे यह प्रसिद्ध हुआ । इसके छह खण्ड इस प्रकार हैं- १ जीवस्थान, २ खुद्दाबन्ध ( क्षुद्रबन्ध ), ३ बन्धस्वामित्वविचय, ४ वेदना, ५ वर्गणा और महाबन्ध |
१ जीवस्थान- इस खंडमें गुणस्थान और मार्गणास्थानोंका आश्रय लेकर सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगद्वारोंसे, तथा प्रकृतिसमुत्कीर्त्तना, स्थानसमुत्कीर्त्तना, तीन महादण्डक, जघन्यस्थिति, उत्कृष्ट स्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गतिआगति इन नौ चूलिकाओंके द्वारा जीवकी विविध अवस्थाओंका वर्णन किया गया है ।
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राग, द्वेष और मिथ्यात्व भावको मोह कहते हैं । मन, वचन, कायके निमित्तसे आत्म'प्रदेशोंके चंचल होनेको योग कहते हैं । इन्हीं मोह और योगके निमित्तसे दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप आत्मगुणोंकी क्रम विकासरूप अवस्थाओंको गुणस्थान कहते हैं । वे गुणस्थान १४ हैं- १ मिथ्यात्व, २ सासादन, ३ मिश्र, ४ अविरतसम्यग्दृष्टि, ५ देशसंयत, ६ प्रमत्तसंयत, ७ अप्रमत्तसंयत, ८ अपूर्वकरणसंयत, ९ अनिवृत्तिकरणसंयत, १० सूक्ष्मसांपरायसंयत, ११ उपशान्तमोह छद्मस्थ, १२ क्षीणमोह छद्मस्थ, १३ सयोगिकेवली और १४ अयोगिकेवली |
१ मिथ्यात्वगुणस्थान- यद्यपि जीवका स्वरूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप या दूसरे शब्दों में सत् चित् आनन्दरूप है । तथापि यह आत्मा अपने इस स्वरूपको मोहकर्मके
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