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प्रस्तावना
ऊपर चढ़नेका पुरुषार्थ करे, तो चौथे गुणस्थानमें चढ़ सकता है, अन्यथा नीचे गिरता हुआ पहले गुणस्थानमें जा पहुंचता है ।
४ अविरतसम्यग्दृष्टि - प्रथम गुणस्थानवी जीव जब पुरुषार्थ करके अपनी अनादिकालीन मिथ्या दृष्टिको छोड़ कर सच्ची दृष्टिको प्राप्त करता है, तब वह चौथे गुणस्थानको प्राप्त होता है । इस सच्ची दृष्टिको जैन परिभाषामें सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व कहते हैं । आत्माका यथार्थ स्वरूप राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोधादि विकारी भावोंसे रहित शुद्ध, बुद्ध एवं शान्तिरूप है, अर्थात् सत्-चित्-आनन्दमय है । मिथ्यात्वी जीवको आत्माके इस शुद्ध स्वरूपके अभीतक दर्शन नहीं हुए थे, अतः वह अपनी वैभाविक वर्तमान परिणतिकोही अपना स्वरूप समझ रहा था । जब जीवके वह मिथ्यात्वभाव छूट कर सम्यक्त्व भाव प्रकट होता है, तब जैसे जन्मान्ध पुरुषके नेत्र खुल जाने पर प्रत्येक वस्तुके रूपका यथार्थ दर्शन होने लगता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवको अपनी आत्माके शुद्ध रूपका यथार्थ दर्शन हो जाता है। आत्मदर्शन होनेके साथही वह एक अनिर्वचनीय आनन्दका अनुभव करता है और जिन सांसारिक वस्तुओंको अभीतक अपनी मानकर उनकी प्राप्तिके लिए आकुल-व्याकुल हो रहा था, उससे विमुक्त होकर निराकुलतारूप स्वाधीन सुखके सागरमें गोते लगाता है । उस समय उसके कषायके अभावसे प्रशमभाव प्रकट होता है, यथार्थ ज्ञानसे उसके हृदयमें संसारसे संवेग और निर्वेद भाव उत्पन्न होता है । प्राणिमात्रपर कारुण्यभाव जागता है और मैं अपनी इसी परिणतिमें स्थिर रहूं- निमग्न रहूं, इस प्रकारका आस्तिक्यभाव प्रकट होता है। इसी भावके कारण उसकी जिन-भाषित तत्त्वोंपर दृढ़ प्रतीति होती है । वह अपने भीतर विद्यमान ज्ञान, दर्शन, सुख, बल, वीर्य आदि गुणोंकोही अपना मानने लगता है और अंतरात्मा बनकर बहिरात्म दृष्टि छोडकर अपनेमें स्थित शुद्ध, नित्य, त्रैकालिक ज्ञायक परमात्माकी आराधना करता है । संसारके कार्योसे उदासीन रहता है। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवके परिणाम सदा विशुद्ध रहने लगते हैं। उसकी अन्यायरूप प्रवृत्ति छूट जाती है और न्यायपूर्वक आजीविकादि कार्य करने लगता है । मोहनीय कर्मके दो भेद बतलाये गये हैं- दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । इस गुणस्थानवालेके चारित्रमोहनीयका उदय रहनेसे व्रत, शील, संयम आदि पालन करनेके भाव तो जीवके नहीं होते हैं । किन्तु चारित्रमोहके अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम, क्षय और क्षयोपशम इस गुणस्थानमें होता है । उक्त कर्मोके कुछ काल तक उदयमें नहीं आनेको उपशम कहते हैं। उनके सर्वथा विनष्ट हो जानेको क्षय कहते हैं। तथा उन्हीं सर्वघाती प्रकृतियोंके उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशमके साथ देशघाती सम्यक्त्वप्रकृतिके उदय होनेको क्षयोपशम कहते हैं। दर्शन मोहके उपशमसे जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, उसे औपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। क्षयसे जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, उसे क्षायिकसम्यग्दर्शन कहते हैं और क्षयोपशमसे जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, उसे क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयकी प्रधानतासे अर्थात्
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