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प्रस्तावना
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रखकर अनावश्यकोंका यावज्जीवनके लिए त्याग करता है। तथा उसमें भी दैनिक आवश्यकताओंको दृष्टिमें रख कर कुछके सेवनको रख कर शेषके त्यागका नियम करता रहता है । तथा नियमपूर्वक प्रतिदिन अतिथि ( साधु श्रावक या असंयत सम्यग्दृष्टि) को आहारदान देता है, रोगियोंको औषधिदान देता है, जिज्ञासुओं और विद्यार्थियोंको ज्ञानदान देता है, तथा भय-भीतों, अनाथों और निर्बलोंकी सहायता कर उन्हें अभयदान देता है । कहनेका सारांश यह कि इस गुणस्थानवाला जीव एक श्रेष्ठ नागरिक व्यक्तिका आदर्श जीवन व्यतीत करता है । इस गुणस्थानका दूसरा नाम संयतासंयत है, इसका कारण यह है कि वह त्रस जीवोंकी हिंसाका सर्वथा त्यागी होने से तो संयत ( संयमी ) है और स्थावर जीवोंकी हिंसाका त्यागी न होनेसे असंयत ( असंयमी ) है । इस प्रकार एकही समय में संयत और असंयतके दोनों रूपोंको धारण करनेसे संयतासंयत कहलाता है । यह संयतासंयत धीरे धीरे अपने असंयत भावको घटाता और संयत भावको बढ़ाता हुआ ग्यारहवीं प्रतिमाकी उस उच्चश्रेणी पर पहुंचता है, जहां उसकी निजी आवश्यकताएं अत्यल्प रह जाती हैं । वह वस्त्रों में एक कौपिन ( लंगोट ) को रखता है, निरुद्दिष्ट आहार लेता है और घर-भार छोड़कर साधुआवासोंमें रहने लगता है । इस गुणस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त से कम एक पूर्व कोटी वर्ष है । यहां इतना विशेष ज्ञातव्य है कि जो जीव उपशम सम्यक्त्वके साथ श्रावकके व्रत धारण करनेरूप संयमासंयमको प्राप्त होता है, वह अन्तर्मुहूर्तके भीतर भी यदि वेदक या क्षायिक सम्यक्त्वको नहीं धारण करता है, तो वह इस गुणस्थानसे गिरकर नीचेके गुणस्थानोंमें चला जाता है ।
६ प्रमत्तसंयत गुणस्थान- चारित्रमोहनीयका तीसरा भेद जो प्रत्याख्यानावरण कषाय है, उसका क्षयोपशम होनेपर जीव सकलसंयमको अंगीकार करता है; अर्थात् सर्व सावद्ययोगका सूक्ष्म और स्थूलरूप-हिंसादि पांचों पापोंका मन, वचन, कायसे और कृत, कारित, अनुमोदनासे यावज्जीवन के लिए त्याग कर महाव्रतोंको अंगीकार करता है । शौचका साधन कमण्डलु, ज्ञानका सावन शास्त्र और संयमका साधन मयूर पिच्छी इन तीन उपकरणोंको छोड़ वह सभी प्रकार के बाह्य परिग्रहों का त्यागी होता है । फिरभी संज्वलन और नोकषायोंके उदयसे इसके प्रमादरूप अवस्था होती है । ये प्रमाद १५ हैं - चार विकथा, चार कषाय, पांच इंद्रियां, एक निद्रा और एक प्रणय ( स्नेह ) । इन पंद्रह प्रकार के प्रमादोंमेंसे जिस किसी समय जिस किसी प्रमादरूप परिणती होती रहनेसे इस गुणस्थानवर्ती जीवका नाम प्रमत्त संयत है । इस गुणस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है । जिसका अभिप्राय यह है कि प्रमत्तसंयत साधु अन्तर्मुहूर्त कालके I भीतरही अपनी प्रमत्त दशाको छोड़कर अप्रमत्त होता है और आत्म-स्वरूपके चिन्तनमें लग जाता है । पर आत्म-स्वरूपका चिन्तन भी तो स्थायी नहीं रह सकता और उससे उपयोग हटते ही पुनः किसी प्रमादरूपसे परिणत हो जाता है । जिस प्रकार जागृत दशा रहनेपर भी आंखोका
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