Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
___ मात्र अपने अपने पक्ष से प्रतिबद्ध ये सभी नय मिथ्याष्टि हैं । परन्तु यदि ये सभी नय परस्पर सापेक्ष हों तो समीचीनपने को प्राप्त होते हैं, अर्थात् सम्यग्दृष्टि होते हैं ।
जह जिणमयं पवज्जइ तो मा ववहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तिस्थं अण्णण पूण तच्चं ॥
आचार्य कहते हैं-हे भव्य जीवो ! जो तुम जिनमत को प्रवर्ताना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ ( मोक्षमार्ग ) का नाश हो जायगा और निश्चयनय के बिना तत्त्व ( वस्तुस्वरूप ) का नाश हो जायगा।
निश्चयनय का विषय सामान्य-अभेद है और व्यवहारनय का विषय विशेष-पर्यायभेद है। वस्तु सामान्यविशेषात्मक है तथा भेदाभेद स्वरूप है। इन दोनों में से किसी भी एक नय के विषय को ग्रहण कर दूसरे नय के विषय का निषेध किया जाना ठीक नहीं होगा। प्रयोजनवश किसी एक नय के विषय को मुख्य और दूसरे नय के विषय को गौण किया जा सकता है। कहा भी है
"अनेकान्तात्मकवस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्राप्ति प्राधान्यमपितमुपनीतमिति यावत्। तविपरीतमपितम् । प्रयोजनाभावातू सतोऽप्यविवक्षा भवतीत्युपसर्जनीभूतमनपितमित्युच्यते । अपितं चानपितं चापितानपिते । ताभ्यां सिद्धरपिता-नर्पितसिद्धर्नास्ति विरोधः।" सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सू० ३२ ।
-वस्तु अनेकान्तात्मक है। प्रयोजनवश किसी एक धर्म की विवक्षा से जब प्रधानता प्राप्त होती है, तो वह अपित या उपनीत होता है। प्रयोजन के अभाव में जिस धर्म की प्रधानता नहीं होती वह अनपित होता है। किसी धर्म को रहते हुए भी उसकी विवक्षा नहीं होने से वह गौण या अनर्पित हो जाता है। अर्पित और अनर्पित के द्वारा वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मों की सिद्धि होती है, इसलिये निश्चयनय और व्यवहारनय परस्पर सापेक्ष हैं। इसमें कोई विरोध नहीं है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने निश्चय और व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो प्रकार का कहा है
निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः।
तत्राद्यः साध्यरूपः, स्याद्वितयस्तस्य साधनम् ॥२॥ निश्चय और व्यवहार को अपेक्षा मोक्षमार्ग दो प्रकार का है । उनमें पहला निश्चय मोक्षमार्ग साध्यरूप है और दूसरा व्यवहार मोक्षमार्ग उसका ( निश्चय का ) साधन है।"
"न केवल भूतार्थोनिश्चयनयो निर्विकल्प समाधिरतानां प्रयोजनवानुभवति, किन्तु निर्विकल्पसमाधिरहितानांपुनःषोडशवणिकासुवर्णलाभाभावे अधस्तनवणिकासुवर्णलाभवत् केषांचित्प्राथमिकानां कदाचित् सविकल्पावस्थायां मिथ्यात्वविषयकषायानवंचना व्यवहारनयोपि प्रयोजनवान भवति ।"
यहाँ पर यह बतलाया गया है कि मात्र निश्चय ही प्रयोजनवान् नहीं है। निर्विकल्पसमाधि में स्थित मुनियों के लिये निश्चय प्रयोजनवान है, किन्तु निर्विकल्प समाधि से रहित सविकल्प अवस्था में व्यवहार प्रयोजनवान है।
-जै. ग. 1-5-75/VII/ रो. ला. मित्तल
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