Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
९२४ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ-आठों अपूर्वकरण गुणस्थान में हास्यादि छह नोकषाय उदयव्युच्छिन्न होती हैं ।
प्रतः मात्र सम्यक्त्व हो जाने से भयप्रकृति के उदय का प्रभाव नहीं हो जाता है, क्योंकि भयप्रकृति का उदय आठवेंगुणस्थान तक रहता है । अर्थात् आठवेंगुणस्थान तक सम्यग्दृष्टि के भयप्रकृति का उदय रहता है।
-जै. ग. 27-1-70/VII/ कपूरबन्द मानन्द
सम्यक्त्वी को भी चिन्ता होतो है
शंका-क्या सम्यग्दृष्टि जीव चिन्तातुर या खेदखिन्न भी होता है ?
समाधान-सम्यग्दृष्टिजीव चौथे गुणस्थान से सिद्ध तक होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि चारों गतियों के जीव होते हैं और उनके आर्त-रौद्रध्यान भी होते हैं ( मोक्षशास्त्र, अध्याय ९, सूत्र ३४ व ३५)। अतः सांसारिक हानि के समय चिन्ता आदि हो सकती है। 'धर्म का प्रतिदिन ह्रास हो रहा है, धर्म का उत्थान किस प्रकार हो' ऐसी चिन्ता भी सम्यग्दृष्टि को हो सकती है। चिन्ता आदिक सम्यग्दर्शन के घातक नहीं हैं, किन्तु परद्रव्य में एकत्व बुद्धि तथा अन्यान्य व अभक्ष्य का सेवन, संयम के प्रति जुगुप्सा भाव; ये सम्यग्दर्शन के घातक हैं।
-जें. ग. 26-9-63/IX/प्र. पन्नालाल
ज्ञानी जीव के सीमित पदार्थों का उपभोग भी परति भाव से होता है शंका-समयसार निर्जरा अधिकार में आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने कहा है कि जिसप्रकार कोई पुरुष अरति भाव से मद्य पोकर मतवाला नहीं होता उसीप्रकार द्रव्योपभोग विषय अरत-ज्ञानी-पुरुष नहीं बंधता यह कैसे सम्भव है? क्योंकि मद्य की लत (व्यसन) जिसको पड़ गई है और अरति भाव से पीता है वह भले ही मत्त न हो, परन्तु अन्य सभी मत्त देखे जाते हैं।
समाधान-जिस मनुष्य को मद्यपान का व्यसन है वह इतनी तेज व अधिक मद्य पीता है जिससे वह उन्मत्त हो जावे, क्योंकि वह उन्मत्त अवस्था को अच्छी समझता है इसलिये वह रतिभाव से तेज व अधिक मद्य का पान करता है। जब उसको यह बोध हो जाता है कि मद्यपान के कारण जो उन्मत्त अवस्था होती है वह बुरी है, दुःखरूप तथा निन्ध है तो उसको मद्यपान से अरति हो जाती है, किन्तु पूर्व आदत (व्यसन) के कारण वह मद्यका सर्वथा त्याग करने में असमर्थ है अतः वह तेज मदिरा का तो त्याग कर देता है और अरतिभाव से इतनी हलकी तथा कम मदिरा का पान करता है जिससे वह उन्मत्त नहीं होता है। यदि वह पूर्ववत् तेज मदिरा का पान करता है तो उसके अरतिभाव ही नहीं है और वह उन्मत्त अवश्य होगा।
. अनादिकाल से यह अज्ञानी जीव परपदार्थों का रतिभाव से उपभोग कर रहा है. क्योंकि उसमें इसने सुख मान रखा है । जब इसको ज्ञान हो जाता है तो यह परपदार्थों का उपभोग करना नहीं चाहता, किन्तु सर्वथा त्याग करने में असमर्थ होने के कारण परिग्रह परिमाण तथा भोगोपभोग परिमाण करके अणुव्रत धारण करता है । अतः वह उन अल्प परपदार्थों का उपभोग अरतिभाव से करता है। यदि वह परिग्रह परिमाण आदि नहीं करता, पूर्ववत् उपभोग करता है तो वह ज्ञानी ही नहीं।
--. ग. 15-1-70/VII/राजकिशोर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org