Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "परमसमाधिकाले नवपदार्थमध्ये शुद्धनिश्चयनयेनैक एव शुद्धात्मा प्रद्योतते प्रकाशते प्रतीयते अनुभूयते इति । या चानुभूतिः प्रतीतिः शुद्धात्मोपलब्धिः सव निश्चयसम्यक्त्वमिति ।" समयसार पृ० १६
'निश्चयरत्नत्रयलक्षणशुद्धोपयोगबलेन निश्चयचारित्राविनामाविवीतरागसम्यग्दृष्टिभूत्वा निविकल्पसमाधिरूपपरिणामपरिणति करोति ।" समयसार पृ० ६५
"निश्चयचारित्राविनाभाविवीतराग सम्यग्दृष्टिभूत्वा संवरनिर्जरामोक्षपदार्थानां त्रयाणां कर्ता भवतीत्यपि संक्षेपेण निरूपितं पूर्व, निश्चयसम्यक्त्वस्याभावे यदा तु सरागसम्यक्त्वेन परिणमति तदा शुद्धात्मानमुपादेयं कृत्वा परंपरया निर्वाणकारणस्य तीर्थकरप्रकृत्यादिपुण्यपदार्थस्य कर्ता भवतीत्यपि पूर्व निरूपितं ।" समयसार पृ० ११० "निजपरमात्मोपादेयरुचिरूपं वीतरागचारित्राविनाभूतं यनिश्चयसम्यक्त्वं तस्यैव मुख्यत्वं ।"
-प्रवचनसार पृ० ३८० इन आर्षवाक्यों से यह स्पष्ट है कि निर्विकल्पसमाधिकाल में वीतरागचारित्र अर्थात् निश्चयचारित्र के साथ होनेवाला सम्यक्त्व ही वीतरागसम्यक्त्व अर्थात् निश्चयसम्यग्दर्शन है। वीतरागचारित्र के बिना निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं हो सकता । चतुर्थ गुणस्थान में असंयतसम्यग्दृष्टि के संयम का ही अभाव है अतः उसके वीतरागचारित्र सम्भव नहीं है । वीतरागचारित्र के बिना निश्चयसम्यक्त्व होता नहीं है अतः चतुर्थगुणस्थान में निश्चयसम्यक्त्व नहीं होता। वहाँ पर सराग-सविकल्परूप व्यवहारसम्यग्दर्शन होता है।
-जं. ग. 23-9-71/VII/ रो. ला. मित्तल
असंयतावस्था में माया व निदान शल्य का सद्भाव संभव है
शंका-निःशल्य का अर्थ क्या सम्यग्दर्शन है ? क्या चतुर्थगुणस्थान में ही जीव निःशल्य हो जाता है ?
समाधान-शल्य तीन प्रकार के हैं
"मायाशल्यं निदानशल्यं मिथ्यावर्शनशल्यमिति । माया निकृतिर्वञ्चना। निवानं विषयभोगाकाक्षा। मिथ्यावर्शनमतत्त्वश्रद्धानम् । एतस्मात् त्रिविधाच्छल्यानिष्क्रान्तो निःशल्यो व्रती इत्युच्यते" ॥१८॥ स० सि० ।
अर्थ-मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य । माया, निकृति और वंचना अर्थात् ठगने की वृत्ति यह मायाशल्य है। भोगों की लालसा निदानशल्य है । प्रतत्त्वों का श्रद्धान मिथ्यादर्शनशल्य है। इन तीनों शल्यों से जो रहित है वह निःशल्य व्रती कहा जाता है।
णो इंवियेसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि।
जो सद्दहदि जिणुत, सम्माइट्ठी अविरवो सो ॥२९॥ गो. जी. जो इन्द्रिय के विषयों से अर्थात भोगों से तथा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, अर्थात् पापों से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित प्रवचन का श्रदान करता है वह अविरतसम्यग्दृष्टि है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि चतुर्थगुणस्थान में यद्यपि मिथ्याशल्य का अभाव है तथापि मायाशल्य व निदानशल्य का सद्भाव है, क्योंकि उसके विषय भोगों का तथा पांच पापों का त्याग नहीं है ।
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