Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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ε२० ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
जो एकांत से प्रसव आदि को जीवसम्बन्धी कहे या एकान्त से पुद्गल ( अजीव ) सम्बन्धी कहे तो उन दोनों के वचन मिथ्या हैं, क्योंकि जिसप्रकार पुत्र की उत्पत्ति स्त्री-पुरुष दोनों के संयोग से होती है, उसीप्रकार श्राव आदि की उत्पत्ति जीव और पुद्गल दोनों के संयोग से होती है ।
द्रव्य की श्रद्धा के साथ गुण व पर्याय की श्रद्धा अनिवार्य है, क्योंकि “गुणपय्यंयव द्रव्यम् ।" अर्थात् गुणपर्यायवाला द्रव्य है, ऐसा सूत्र है । जो पर्याय से रहित मात्र द्रव्य का श्रद्धान करता है, उसको भी प्रवचनसार में पर्यायविमूढ़ परसमय ( मिथ्यादृष्टि ) कहा है ।
"नारकादिपर्यायरूपो न भवाम्यहमिति भेदविज्ञानमूढाश्च परसमया मिथ्यादृष्ट्यो भवन्तीति ।" प्रवचनसार मैं नारकी श्रादि पर्यायरूप नहीं हूं, ऐसा जो मानता है वह भेदविज्ञान मूढ़ है, परसमय मिध्यादृष्टि है । - जै. ग. 8-6-72 / VI / रो. ला. मित्तल
जीव को अपने सम्यक्त्व का ज्ञान कथंचित् हो सकता है
शंका- अपने को सम्यक्त्व होने का ज्ञान हो जाता है या नहीं ?
समाधान - अपने को सम्यक्त्व होने का ज्ञान हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है । सम्यक्त्व जीव का सूक्ष्म भाव है और उसका जघन्यकाल एक सेकन्ड के संख्यातवें भाग से भी कम है । अत: इतने कम काल के परिणाम मतिज्ञान के द्वारा ग्रहण होना कठिन है। ज्ञान से पूर्व जो दर्शन होता है वह यद्यपि चेतना गुण की पर्याय है तथापि उसका काल इतना कम है कि वह जीव की पकड़ में नहीं आता है ।
श्रव्रती सम्यक्त्वी श्रात्मतत्त्व को नहीं देख सकता
शंका - आत्म-दर्शन किसको होता है ? क्या चौथे गुणस्थान वाले असंयतसम्यग्दृष्टि को साक्षात् आत्मदर्शन हो सकता है ?
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- जै. ग. 6-7-72 / 1X / र. ला. जैन, मेरठ
समाधान - यही प्रश्न श्री पूज्यपादाचार्य के सामने उपस्थित हुआ था । उन्होंने अध्यात्म ग्रन्थ समाधितन्त्र में निम्नप्रकार उत्तर दिया है
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रागद्वेषादि कल्लोलंरलोलं यन्मनोजलम् । सपश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत् तत्त्वं नेतरो जनः ॥ ३५ ॥
अर्थ - जिसका मनरूपी जल रागद्वेष-काम-क्रोध-मान- माया लोभ आदि तरंगों से चंचल नहीं होता वही पुरुष आत्मतत्त्व को देखता अर्थात् अनुभव करता है । उस आत्म-तत्व को दूसरा मनुष्य ( अर्थात् जिसका मन रागद्वेष आदि तरंगों से चंचल हो रहा है ऐसा मनुष्य ) नहीं देखता ।
जिस प्रकार तरंगित जल में अपना प्रतिबिम्ब भले प्रकार न पड़ने से अपना यथार्थं प्रतिभास नहीं होता प्रर्थात् अपना स्वरूप ठीक नहीं दिखाई देता उसीप्रकार रागद्वेषादि कल्लोलों से चंचल मन में आत्मा का यथार्थ दर्शन नहीं होता । जब जल तरंगों से रहित होकर स्थिर हो जाता है उसमें अपना ठीक प्रतिबिम्ब पड़ने से अपना स्वरूप दिखलाई दे जाता है । उसीप्रकार जब मन में रागद्वेषादि कल्लोलों का अभाव हो जाता है उस समय मन स्थिर हो जाता है और उस निर्विकार स्थिर मन में आत्म-तत्त्व दिखलाई देने लगता है ।
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