Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
णिज्जिय-दोसं देवं सव्व जिवाणं दयावरं धम्म ।
वज्जियगंथं च गुरु जो मण्णादि सो हु सद्दिट्ठी ॥३१९॥ स्वामिकार्तिकेय श्री पं. कैलाशचन्दजी इसकी टीका में लिखते हैं -"जो वीतराग प्रहन्त को देव मानता है सब जीवों पर दया को उत्कृष्टधर्म मानता है और परिग्रह के त्यागी को गुरु मानता है वही सम्यग्दृष्टि है।"
इसप्रकार प्रायः सभी आचार्यों ने सम्यग्दर्शन का लक्षण देव, गुरु, शास्त्र की श्रद्धा को कहा है। स्वयं श्री पं० कैलाशचन्दजी ने उपासकाध्ययन व स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका में लिखा है 'देव, शास्त्र और पदार्थों का श्रद्धान अथवा देव, गुरु, धर्म का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है और उस सम्यग्दर्शन में दर्शनमोहनीयकर्म का उपशम क्षय या क्षयोपशम होता है।'
देव, शास्त्र तथा गुरु की श्रद्धा सम्यग्दर्शन का लक्षण है । जहाँ लक्षण हो वहाँ लक्ष्य न हो ऐसा हो नहीं सकता। अतः जहां पर देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा है वहां पर सम्यग्दर्शन अवश्य है, क्योंकि देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान सम्यग्दर्शन का लक्षण है।
इतना ही नहीं श्री पं० कैलाशचन्दजी इससे भी कुछ अधिक कहना चाहते हैं
"जो तत्त्वों को नहीं जानता किन्तु जिनवचन में श्रद्धान करता है कि जिनवर भगवान ने जो कहा है उस सबको मैं पसन्द करता हूं। वह भी श्रद्धावान है। जो जीव ज्ञानावरण कर्म का प्रबल उदय होने से जिन भगवान के द्वारा कहे हुए जीवादि तत्त्वों को जानता तो नहीं है, किन्तु उन पर श्रद्धान करता है कि जिन भगवान के द्वारा
तत्त्व बहुत सूक्ष्म है युक्तियों से उसका खण्डन नहीं किया जा सकता। अतः जिन भगवान की आज्ञारूप होने से वह ग्रहण करने योग्य है, क्योंकि वीतराग जिन भगवान अन्यथा नहीं कहते, ऐसा मनुष्य भी आज्ञा सम्यक्त्त्वी होता है ।" स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा भाषा टीका पृ० २२९
जो ण विजाणवि तच्च सो जिणवयणे करेदि सहहणं । जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि ॥
-जें. ग. 15-8-68/VIII/....... सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में मन्दराग भी कथंचित् कारण है शंका-क्या मंदराग सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में कारण है ?
समाधान-उत्कृष्ट अर्थात् तीव्र राग के होने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि तीव्रकषायरूप परिणाम के होने पर जीव के तत्त्वरुचि होना असम्भव है। कहा भी है 'उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व और उत्कृष्ट अनुभागसत्त्व के होने पर तथा उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग के बंधने पर सम्यक्त्व, संयम एवं संयमासंयम का ग्रहण सम्भव नहीं है।' षटखंडागम पुस्तक १२ १०३०३ कषाय के अभाव में भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति संभव नहीं है, क्योंकि कषाय (राग) का अभाव सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् होता है। अतः पारिशेष न्याय से यह सिद्ध हआ कि मंदकषाय (राग) के सद्भाव में हो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। कहा भी है 'प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख जीव के जिन अप्रशस्त प्रकृतियों का उदय होता है उनके निंब और कांजीररूप द्विस्थानिय अनुभाग का वेदक होता है।' षट्खंडागम पुस्तक ६ पृ० २१३, लब्धिसार गाथा २९ । श्री मोक्षमार्गप्रकाशक में भी कहा है'कोई मंद कषायादि का कारण पाय ज्ञानावरणादि कर्मनिका क्षयोपशम भया. तातै तत्त्व विचार करने की शक्ति भई । अर मोह मंद भया, तात तत्त्वादि विचार विष उद्यम भया ।'
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