Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं-सर्वज्ञ कथित वस्तुओं ( सुदेव, सुगुरु, सुधर्म ) में प्रशस्तराग का फल पुण्य संचय पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है। वह फल कारण की विपरीतता होने से विपरीत ही होता है, जैसे छद्मस्थ कथित वस्तुयें विपरीत कारण हैं। छद्मस्थ कथित उपदेश के अनुसार व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान, दान, रतरूप प्रशस्तराग का फल मोक्षशून्य केवल अधमपुण्य की प्राप्ति है, वह फल की विपरीतता है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है
अरहंतणमोकारं भावेण य जो करेवि पयडमादि ।
सो सम्वदुक्खमोक्खं पावइ अचिरेण कालेण ॥ जो भावपूर्वक अरहंत को नमस्कार करता है, वह अतिशीघ्र समस्त दुखों से मुक्त हो जाता है। श्री वीरसेनाचार्य ने भी कहा है-"जिबिंबदसरणेण णिधत्त-णिकाचिवसवि मिच्छत्सादिकम्मकलावस्सखयदसणावो।" जिनबिंब के दर्शन से निधत्त और निकाचितरूप भी मिथ्यात्वकर्मकलाप का क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिंब का दर्शन सम्यक्त्त्व की उत्पत्ति का कारण होता है। श्री सकलकोाचार्य ने भी कहा है
स्वर्गश्रीगृहसारसौख्यजनिकां श्वभ्रालयेष्वर्गला । पापारिक्षयकारिका सुविमला, मुक्त्यङ्गनादूतिकाम् ॥ श्री तीर्येश्वर सौख्यवान कुशला, श्री-धर्म संपादिका । भ्रातस्त्वंकुरु वीतरागचरणे, पूजां गुणोत्पादिकाम् ।।१५७॥
जिनपूजा-भक्ति स्वर्गलक्ष्मी के श्रेष्ठ सुखों को उत्पन्न करने वाली है, नरकरूप घर का आगल है, पापरूप शत्रु ( मिथ्यात्व ) का क्षय करनेवाली है, अत्यन्त निर्मल है, मुक्ति की दूत है, तीर्थंकर के सुख को देने वाली है, धर्म ( सम्यक्त्व ) को उत्पन्न करने वाली है तथा गुणों की उत्पादक है, अतः हे भाई ! तू निरन्तर वीतराग भगवान के चरणों की पूजा-भक्ति कर ।
इन आर्षवाक्यों से स्पष्ट हो जाता है कि वीतराग भगवान की भक्ति अर्थात् गुणानुराग से पापस्वरूप मिथ्यात्वोदय का क्षय होता है तथा सम्यक्त्वरूप धर्म की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार वीतराग भगवान, निग्रंथगुरु और दयामयी धर्म में अनुराग से सम्यक्त्वोत्पत्ति पाई जाती है। जिनबिम्बदर्शन, जिनमहिमा दर्शन को सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में भी कहा गया है।
-जे. ग. 11-7-74/VI/ रो. ला. मित्तल
सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान सम्यग्दर्शनका लक्षण है शंका–९ नवम्बर १९६७ के जैनसन्देश के सम्पादकीय लेख में लिखा है "जिस मिथ्यात्व कर्म का शासन अनादि काल से चला आता है एक अन्तर्मुहूर्त के लिए उस शासन को समाप्त कर देना क्या कोई साधारण बात है ? केवल देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा मात्र से ऐसी क्रान्ति होना संभव नहीं है। यद्यपि देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा कर्म शत्रु के विरुद्ध बगावत का झण्डा ले लेने की निशानी जरूर है, किन्तु इतने से ही पुराना शत्रु भागने वाला नहीं है।"
इस पर यह शंका होती है कि क्या मात्र देव, गुरु, शास्त्र को श्रद्धा सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं है ?
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