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जैन आगम साहित्य : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन • 3
वाचना की उपज हैं।
सन्दरगणि ने अपने समाचारीशतक15 में देवर्द्धि के उक्त सत्प्रयत्न का वर्णन इस प्रकार किया है कि देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष के कारण बहुत से साधुओं के मरण तथा अनेक बहुश्रुतों का विच्छेद हो जाने पर श्रुतिभक्ति से प्रेरित होकर भावी जनता के उपकार के लिए वीर निर्वाण सम्वत् 980 में श्री संघ के आग्रह से बचे हुए सब साधुओं को वलभी नगरी में बुलाया। उनके मुख से विच्छिन्न होने से अवशिष्ट रहे न्यूनाधिक त्रुटित, अत्रुटित आगम पाठों को अपनी बुद्धि से क्रमानुसार संकलित करके पुस्तकारूढ़ किया। यद्यपि मूल में सूत्र गणधरों के द्वारा गूंथे गए, तथापि देवर्द्धि के द्वारा पुन: संकलित किये जाने से ही देवर्द्धि आगमों के कर्ता हए।
द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के पश्चात् देवर्द्धिगणि के नेतृत्व में श्रमण संघ मिला। बहुत सारे बहुश्रुत मुनि काल कवलित हो चुके थे। साधुओं की संख्या भी कम हो गई। श्रुत की अवस्था चिन्तनीय थी। दुर्भिक्षजनित कठिनाइयों से प्रासुक भिक्षाजीवी साधुओं की स्थिति बड़ी विचारणीय थी। श्रुत की विस्मृति हो गयी थी। देवर्द्धिगणि ने अवशिष्ट संघ को वलभी में एकत्रित किया। जिन्हें सभी श्रुत कण्ठस्थ थे वह उनसे सुना। आगमों के आलापक छिन्न-भिन्न न्यूनाधिक मिले। उन्होंने अपनी मति से उसका संकलन किया, सम्पादन किया और पुस्तकारूढ़ किया। आगमों का वर्तमान संस्करण देवर्द्धिगणि का है। अंगों के कर्ता गणधर हैं। अंगबाह्यश्रुत के कर्ता स्थविर हैं। उन सबका संकलन और सम्पादन करने वाले देवर्द्धिगणि हैं इसलिए वे आगमों के वर्तमान रूप के कर्ता भी हुए।।6
सुन्दरगणि का उक्त कथन वर्तमान जैन आगमों के विषय में वास्तविक स्थिति हमारे सामने रखता है। एक हजार वर्ष तक जो सिद्धान्त स्मृति के आधार पर प्रवाहित होते आये हों उनकी संकलना और सुव्यवस्था में इस प्रकार की कठिनाइयों का होना स्वभाविक है। ___ आज भी जीर्ण-शीर्ण प्राचीन किसी ग्रन्थ का उद्धार करने वालों के सामने इसी प्रकार की कठिनाइयां आती हैं। प्राचीन शिलालेखों का सम्पादन करने वाले अस्पष्ट और मिट गये शब्दों की संकलना पूर्वापर सन्दर्भ के अनुसार करते हैं। अत: देवर्द्धि ने भी त्रुटित पाठों को अपनी बुद्धि के अनुसार संकलित करके पदारूढ़ किया होगा। यदि उन्हें समस्त आगमों का कर्ता न भी कहा जाये तो भी जो आगम उपलब्ध हैं, उनको यह रूप देने का श्रेय तो उन्हें ही प्राप्त है। किन्तु, मुनि श्री कल्याणविजय देवर्द्धिगणि को यह श्रेय देने को प्रस्तुत नहीं हैं। वह उन्हें केवल लेखक के रूप में देखते हैं।
मलयगिरि और विनय विजय के अनुसार मगध में हुए दूसरे दुर्भिक्ष के पश्चात् एक साथ दो सम्मेलन हुए-एक मथुरा में और एक वलभी में। लोकप्रकाश